मुनव्वर सुल्ताना, एक ऐसा नाम है जो चालीस और पचास के दशक में दर्शकों की ज़बान पर चढ़ कर बोलता था। बावजूद इसके कि वो बहुत खूबसूरत नहीं थीं, लेकिन उनके चेहरे पर एक गज़ब की कशिश थी। उनके चेहरा बहुत एक्सप्रेसिव था, चाहे ख़ुशी हो या ग़म। खुद ही बोलता था। उन्हें उस दौर के सबसे बड़े फिल्म क्रिटिक बाबू राव पटेल की निगाह से देखें तो वो आलटाइम बीस बेस्ट एक्ट्रेसेस में थीं। याद करें उमा देवी उर्फ़ टुनटुन के गाने को… अफ़साना लिख रही हूं, दिले बेक़रार का… आपको मुनव्वर याद आ जाएगी। या फिर ‘बाबुल’ का तलत महमूद-शमशाद बेगम का गाना… मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का… या फिर पहली नज़र में मुकेश का पहला गाना… दिल जलता है तो जलने दे… नरगिस और सुरैया के साथ वो सबसे ज़्यादा तलाश की जाने वाली नायिका थीं। मुनव्वर के पिता लाहौर में रेडियो अनाउंसर थे। 8 नवम्बर 1924 को मुनव्वर का जन्म हुआ। एक दिन मशहूर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर दलसुख पंचोली की नज़र उन पर पड़ी। उस दिलकश चेहरे को देखा तो दीवाने हो उठे। उन्होंने मुनव्वर को ‘खजांची’ (1941) में बारगर्ल का एक छोटा सा रोल ऑफर किया। वो फिल्म के प्रति क्रेज़ के मद्देनज़र ना नहीं कह पायीं। उन पर एक गाना भी फ़िल्माया गया… पीने के दिन आये… और पीने के दिन तो नहीं, हां मुनव्वर के अच्छे दिन ज़रूर आ गए। बंबई से अब्दुल रशीद कारदार का संदेशा आया। उन्होंने उसे ‘शाहजहां’ में मुमताज़ महल के किरदार के लिए साइन किया। मगर हाय री किस्मत… उन्हीं दिनों बॉम्बे डॉक में धमाका हो गया। बंबई क्या सारा हिंदुस्तान हिल उठा। मुनव्वर की मां बुरी तरह डर गयीं। वापस लाहौर चलो, नहीं करनी फ़िल्में। और मुनव्वर वापस लाहौर । लेकिन मायूस नहीं हुई। डॉक्टर बनने का पुराना ख़्वाब दुबारा हिलोरें लेने लगा। मगर मुनव्वर तो फ़िल्मों के लिए ही बनीं थीं । मशहूर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर मज़हर ख़ान एक दिन उनके दरवाज़े पर आ खड़े हुए। चार हज़ार रूपए महीना और फ्लैट का ऑफर दिया। अब किस्मत ख़ुद किवाड़ खटखटा रही हो तो भला मुनव्वर कैसे मना करती। वापस बंबई। पहली ही फिल्म ‘पहली नज़र’ (1945) में मोतीलाल की हीरोइन बनीं… दिल जलता है तो जलने दे… मगर कारदार भी उन्हें भूले नहीं थे। ‘दर्द’ (1947) में उन्हें लीड दी, जबकि सिंगिंग स्टार सुरैया सेकंड लीड में थीं। कारदार के भाई नुसरत हीरो थे। उमा देवी ने पहली बार गाया… अफ़साना लिख रही हूँ… इसी साल शांताराम की ‘अंधों की दुनिया’ रिलीज़ हुई। महिपाल की पहली फ़िल्म जो कालांतर में पौराणिक फ़िल्मों के बादशाह कहलाये। महबूब की ‘ऐलान’ प्रोग्रेसिव मुस्लिम सोशल फ़िल्म थी जो मुस्लिम औरतों की एजुकेशन की पैरवी करती थी। सुरेंद्र उनके हीरो थे। 1948 में मुनव्वर की चार फ़िल्में रिलीज़ हुईं। जिनमें चर्चित रहीं, ‘मजबूर’, हिन्दू-मुस्लिम लव स्टोरी। श्याम हीरो थे। ‘मेरी कहानी’ कॉमेडी ऑफ़ एरर्स थी, मुनव्वर और मधुबाला एक ही हीरो (सुरेंद्र) के पीछे दीवानी। बाद में पता चला वो डबल रोल था। 1949 में मुनव्वर की रिकॉर्ड सात फ़िल्में आयीं। इनमें श्याम और कुलदीप कौर के साथ मुस्लिम सोशल ‘कनीज़’ बेस्ट थी। एक दुखियारी औरत जिसका पति दूसरी औरत की संगत में भटक गया था, मगर बाद में लौट आया। 1950 में चार फ़िल्में आयीं। सबसे चर्चित रही, दिलीप कुमार-नरगिस के साथ बाबुल। एक भोली-भाली लड़की और गरीब सिंगर की लव स्टोरी में तीसरा एंगल अमीरज़ादी मुनव्वर आ गयी…मिलते ही आँखें दिल दीवाना हुआ… इसके बाद मुनव्वर की फिल्मों की रफ़्तार कम हो गयी। यों भी वो बहुत सेलेक्टिव थीं। यही वज़ह रही कि उन्होंने जो भी किरदार किये चाहे फर्स्ट लीड रही हो या सेकंड, अपनी ज़बरदस्त मौजूदगी ज़रूर दर्ज कराई। इम्प्रेसिव पर्सनालिटी के मद्देनज़र ही वो लक्स के विज्ञापन में भी आयीं। ‘जल्लाद’ (1956) मुनव्वर की आख़िरी फिल्म थी। इस बीच वो शराफ़ अली को दिल दे बैठीं जो फिल्मों के लिए फर्नीचर सप्लाई करते थे। उन्होंने मुनव्वर के लिए दो फ़िल्में भी बनाईं, सुरेंद्र के साथ ‘मेरी कहानी’ (1948) और रहमान के साथ ‘प्यार की मंज़िल’ (1950). फ़िल्में भी चलीं और मोहब्बत भी सलामत रही। शादी के बाद मुनव्वर फ़िल्में छोड़ घर-बार चलाने लगीं। 1966 में शराफ़ का इंतक़ाल हो गया। सिनेमा उन्हें भूल चुका था। चार बेटे और तीन बेटियां का बोझ मुनव्वर ने उठाया। बच्चों को अच्छी तालीम दी। बच्चों और उनके बच्चों के बीच ज़िंदगी के आख़िरी आठ साल मुनव्वर ने बहुत तकलीफ़ में गुज़ारे, ज़िंदा लाश की तरह। उन्हें अल्ज़ाइमर रोग ने दबोच लिया, कुछ भी याद नहीं। श्याम, सुरेंद्र, मोतीलाल, दिलीप कुमार, देवानंद शम्मी कपूर आदि तमाम मशहूर हीरों की दिलकश हीरोइन मुनव्वर को 15 सितंबर 2007 को 82 साल की उम्र में तमाम तक़लीफ़ों से छुटकारा मिल गया। बस कुछ ही अख़बारों में छोटी सी ख़बर छपी, अफ़साना लिख रही हूं…मुनव्वर नहीं रही। रहें न रहें हम, महका करेंगे… वीर विनोद छाबड़ा