पुण्य तिथि पर विशेष-सलिल चौधरी फि़ल्म जगत को अपनी मधुर संगीत लहरियों से सजाने-संवारने वाले महान संगीतकार थे। उनके संगीतबद्घ गीत आज भी फिजां के कण-कण में गूँजते-से महसूस होते हैं। उन्होंने प्रमुख रूप से बंगाली, हिन्दी और मलयालम फि़ल्मों के लिए संगीत दिया था।
फि़ल्म जगत में सलिल दा के नाम से मशहूर सलिल चौधरी को सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं प्रतिभाशाली संगीतकार के तौर पर जाना जाता है। मधुमती, दो बीघा जमीन, आनंद, मेरे अपने जैसी फि़ल्मों के मधुर संगीत के जरिए सलिल चौधरी आज भी लोगों के दिलों-दिमाग पर छाए हुए हैं।
वे पूरब और पश्चिम के संगीत मिश्रण से एक ऐसा संगीत तैयार करते थे, जो परंपरागत संगीत से काफ़ी अलग होता था। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण उन्होंने श्रोताओं के दिलों में अपनी अलग ही पहचान बनाई थी।
सलिल चौधरी का जन्म 19 नवम्बर, 1923 को सोनारपुर शहर, पश्चिम बंगाल में हुआ था। उनके पिता ज्ञानेन्द्र चंद्र चौधरी असम में डॉक्टर थे। सलिल चौधरी का अधिकतर बचपन असम में ही बीता था। बचपन के दिनों से ही उनका रूझान संगीत की ओर था और वह संगीतकार बनना चाहते थे। हालांकि उन्होंने किसी उस्ताद से संगीत की पारंपरिक शिक्षा नहीं ली थी। सलिल चौधरी के बड़े भाई एक ऑर्केस्ट्रा मे काम किया करते थे। उनके साथ के कारण ही सलिल जी हर तरह के वाद्य यंत्रों से भली-भांति परिचत हो गए थे। सलिल दा को बचपन के दिनों से ही बाँसुरी बजाने का काफ़ी शौक़ था। इसके अलावा उन्होंने पियानो और वायलिन बजाना भी सीखा। कुछ समय के बाद वह शिक्षा प्राप्त करने के लिए बंगाल आ गए। सलिल चौधरी ने अपनी स्नातक की शिक्षा कोलकाता भूतपूर्व कलकत्ता) के मशहूर बंगावासी कॉलेज से पूरी की थी।
उनका विवाह सविता चौधरी के साथ हुआ था। वे दो पुत्रियों तथा दो पुत्रों के पिता बने थे। इस बीच वह भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़ गए। 1940 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। देश को स्वतंत्र कराने के लिए छिड़ी मुहिम में सलिल चौधरी भी शामिल हो गए और इसके लिए उन्होंने अपने गीतों का सहारा लिया। अपने संगीतबद्घ गीतों के माध्यम से वह देशवासियों मे जागृति पैदा किया करते थे। इन गीतों को सलिल ने गुलामी के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने के हथियार के रूप मे इस्तेमाल किया। उनके गीतों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारतीयों के संघर्ष को एक नई दिशा दी।
1943 मे सलिल जी के संगीतबद्घ गीत विचारपति तोमार विचार.. और धेउ उतचे तारा टूटचे.. ने आज़ादी के दीवानों में नया जोश भरने का काम किया, किंतु बाद में इस गीत को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। पचास के दशक में सलिल चौधरी कोलकाता में बतौर संगीतकार और गीतकार के रूप में अपनी ख़ास पहचान बनाने में सफल हो गए थे। 1950 में अपने सपनों को नया रूप देने के लिए वह मुंबई आ गए। इसी समय विमल राय अपनी फि़ल्म दो बीघा जमीन के लिए संगीतकार की तलाश कर रहे थे। वह सलिल चौधरी के संगीत बनाने के अंदाज से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सलिल जी से अपनी फि़ल्म दो बीघा जमीन में संगीत देने की पेशकश कर दी। सलिल चौधरी ने एक संगीतकार के रूप में अपना पहला संगीत 1953 में प्रदर्शित दो बीघा जमीन के गीत आ री आ निंदिया.. के लिए दिया। फि़ल्म की कामयाबी के बाद सलिल चौधरी ने बतौर संगीतकार बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। फि़ल्म दो बीघा जमीन की सफलता के बाद इसका बंगला संस्करण रिक्शा वाला बनाया गया।
1955 में प्रदर्शित इस फि़ल्म की कहानी और संगीत निर्देशन सलिल चौधरी ने ही किया था। फि़ल्म दो बीघा जमीन की सफलता के बाद सलिल चौधरी विमल राय के चहेते संगीतकार बन गए थे। इसके बाद विमल राय की फि़ल्मों के लिए सलिल चौधरी ने बेमिसाल संगीत देकर उनकी फि़ल्मों को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सलिल जी के सदाबहार संगीत के कारण ही विमल राय की अधिकांश फि़ल्में आज भी याद की जाती हैं। प्रमुख फि़ल्में दो बीघा जमीन 1953 नौकरी 1955 परिवार 1956 मधुमति 1958 परख 1960 उसने कहा था 1960 प्रेम पत्र 1962 पूनम की रात 1965आनन्द 1971 मेरे अपने 1971 रजनीगन्धा 1974 छोटी बात 1975 मौसम 1975 जीवन ज्योति 1976अग्नि परीक्षा 1981 सलिल चौधरी के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी गीतकार शैलेन्द्र के साथ खूब जमी और सराही गई। शैलेन्द्र-सलिल की जोड़ी वाली फि़ल्मों के गीतों में प्रमुख हैं- अजब तेरी दुनिया हो मोरे रामा.. दो बीघा जमीन, 1953 जागो मोहन प्यारे..जागते रहो, 1956 आजा रे मैं तो कब से खड़ी उस पार, टूटे हुए ख्वाबों ने.. मधुमति, 1958 अहा रिमझिम के प्यारे-प्यारे गीत लिए आई रात सुहानी.. उसने कहा था, 1960 गोरी बाबुल का घर है अब विदेशवा.. चार दीवारी, 1961 चाँद रात तुम हो साथ.. हाफ़ टिकट, 1962 ऐ मतवाले दिल जरा झूम ले.. पिंजरे के पंछी, 1966 सलिल दा के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी गीतकार गुलजार के साथ भी काफ़ी पसंद की गई। सबसे पहले इन दोनों फनकारों का गीत-संगीत 1960 में प्रदर्शित फि़ल्म काबुली वाला में पसंद किया गया। इसके बाद सलिल गुलजार ने कई फि़ल्मों में अपने गीत संगीत के जरिए श्रोताओं का मनोरंजन किया। इन फि़ल्मों में मेरे अपने और आंनद जैसी सुपरहिट फि़ल्में भी शामिल थीं। पार्श्वगयिका लता मंगेशकर सलिल जी की पसंदीदा गायिका रहीं। लताजी की सुरमयी आवाज़ के जादू से सलिल चौधरी का संगीत सज उठता था। उस दौर की किसी फि़ल्म के गाने की गायिका लताजी और संगीतकार सलिल जी हों तो गानों के हिट होने में कोई संशय नहीं रहता था। अपनी आवाज़ के जादू से सलिल चौधरी के जिन संगीत को लता मंगेशकर ने कर्णप्रिय बनाया, उनमें आजा रे निंदिया तू आ.., दिल तड़प-तड़प के कह रहा है.., इतना ना तू मुझसे प्यार बढ़ा.. आदि सुपरहिट नगमें शामिल हैं। वर्ष 1958 में विमल राय की फि़ल्म मधुमति के लिए सलिल चौधरी सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फि़ल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। 1988 में संगीत के क्षेत्र मे उनके बहुमूल्य योगदान को देखते हुए वह संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए।
1960 में प्रदर्शित फि़ल्म काबुली वाला में पार्श्वगायक मन्ना डे की आवाज़ में सजा यह गीत ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान. आज भी श्रोताओं की आंखो को नम कर देता है। 70 के दशक में सलिल चौधरी को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब-सी लगने लगी। अब वह कोलकाता वापस आ गए। इस बीच उन्होंने कई बंगला गानें भी लिखे। इनमें सुरेर झरना और तेलेर शीशी श्रोताओं के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुए। सलिल जी ने अपने चार दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 75 हिन्दी फि़ल्मों में संगीत दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने मलयालम, तमिल, तेलुगू, कन्नड, गुजराती, असमिया, उडिय़ा और मराठी फि़ल्मों के लिए भी संगीत दिया। लगभग चार दशक तक अपने संगीत के जादू से श्रोताओं को भाव विभोर करने वाले महान संगीतकार सलिल चौधरी का 5 सितम्बर, 1995 को निधन हुआ। एजेन्सी