पूर्व राष्ट्रपति डा- सर्वपल्ली राधा कृष्णन सर्वप्रथम दार्शनिक थे, शिक्षक थे और देश की गुलामी के खिलाफ लडऩे वाले राजनीतिक योद्धा भी। इन सभी धर्मों का उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ पालन किया। उनके जन्म दिवस पर जब यह बात उठी कि इसे किस तरह मनाया जाए तो उन्होंने कभी नहीं कहा कि इसे दार्शनिक दिवस के रूप में मनाया जाए अथवा मेधावी दिवस के रूप में मनाया जाए, जबकि वे स्वयं मेधावी थे। डा- राधा कृष्णन ने अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का विचार इसीलिए दिया था क्योंकि वे जानते थे एक शिक्षक समाज की सोच को बदल सकता है। आज सबसे बड़ी जरूरत भी यही है। भ्रष्टाचार, निजी स्वार्थ, कन्या भ्रूण हत्या और आपसी सद्भाव के अभाव की समस्याएं समाज की गंदी सोच की वजह से ही हैं। शिक्षक का स्थान हमारे समाज में ईश्वर से भी बढ़कर रहा है। देश भर में पांच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है और स्कूल कालेजों में जहां विद्यार्थी अपने शिक्षकों को उपहार देकर कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं, वहीं सरकारी स्तर पर भी शिक्षक दिवस का आयोजन होता है जिसमें वर्ष भर उत्कृष्ठ उपलब्धियां अर्जित करने वाले शिक्षक- शिक्षिकाओं को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाता है। इस अवसर पर शिक्षक-शिक्षिकाओं को उन आदर्शों को समझने-याद करने की भी जरूरत है जो शिक्षक के रूप में डा० राधा कृष्णन ने स्थापित किये थे। शिक्षा के प्रति उनका सपना क्या था और भारत देश के लिए वह कैसी शिक्षा चाहते थे। शिक्षक दिवस पर शिक्षा विद और महान दार्शनिक डा० राधाकृष्णन को श्रद्धांजलि देने का यही वास्तविक स्वरूप होगा।
पांच सितम्बर 1888 को जन्मे डा० राधाकृष्णन ने भी सबसे पहले देश की आजादी के बारे में ही सोचा था। उन्होंने शिक्षक के रूप में अपना जीवन शुरू किया तो छात्र-छात्राओं को ऐसी शिक्षा देने का प्रयास किया जो सामाजिक ज्ञान देने के साथ ही देश-समाज के प्रति उनके कर्तव्य को भी याद दिलाये। डा० राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमता पूर्ण व्याख्या, आनंद से पूर्ण अभिव्यक्ति और हंसाने-गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को प्रेरित करने के साथ ही विषयों (सबजेक्ट) का ज्ञान भी कराते थे वे छात्रों को लगातार प्रेरित करते थे कि उच्च नैतिक मूल्यों को अपनाएं, उन्हें अपने आचरण में उतारें। दर्शन जैसे गंभीर विषयों को भी वे अपनी शैली से रोचक, सुगम और सुग्राह्य बना देते थे। डा० राधाकृष्णन जिस विषय को पढ़ाते थे उसे स्वयं पढ़कर भी आते थे। उसका इतना अध्ययन कर लेते थे कि छात्र कोई भी उस संदर्भ में प्रश्न पूछे तो उसका उत्तर दे सकें। उनका मानना था कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। उनका मानना था कि करूणा, प्रेम और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं और यह दायित्व शिक्षकों को निभाना चाहिए। वे कहा करते थे कि भौतिक सामाजिक और आध्यात्मिक गुणों से ओतप्रोत शिक्षकों के द्वारा ही समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करके एक सुंदर, सभ्य और सुसंस्कारित समाज की रचना की जा सकती है।
यह वास्तविकता भी है। समाज को बनाने में शिक्षक का बहुत बड़ा योगदान रहता है। पहले शिक्षक माता-पिता हैं तो उन्हें भी अपना दायित्व उसी रूप में निभाना चाहिए। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि ज्यादातर माता-पिता जीवन की भागदौड़ में इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की तरफ ध्यान देने का समय ही नहीं मिल पाता। संयुक्त परिवारों का बिखर जाना भी इसका एक कारण रहा है लेकिन बच्चों को स्कूल-कालेज, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में जिन शिक्षकों के सानिध्य में रहकर शिक्षा ग्रहण करनी होती है, वे भी ज्यादातर ऐसे ही हैं जो अपने मानदेय या वेतन पर ही ज्यादा ध्यान देते हैं जबकि विद्यार्थियों को शिक्षा देने में उनकी रुचि नहीं होती। यह बात सभी शिक्षकों के बारे में नहीं कही जा सकती। लेकिन जब हम देखते हें कि बिहार में माध्यमिक स्कूल में टॉप करने वाली एक छात्रा पॉलीटिक्स को खाना पकाने की विधि वाला विषय बताती है तब उसको शिक्षा देने वालों के प्रति तरस जरूर आता है। देश भर में प्राइमरी स्कूलों (सरकारी) की शिक्षा को देखकर भी यही सवाल पैदा होता है और इन स्कूलों में थोड़ा भी संसाधन सम्पन्न व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता। यह स्थिति तब है जब प्राइमरी स्कूलों के शिक्षक-शिक्षिकाओं को अधिकारी स्तर का वेतन प्रदान किया जाता है। मुझे अपने प्राइमरी स्कूल के एक शिक्षक नम्बरदार सिंह की याद आती है। आज से लगभग 50 साल पहले प्राइमरी स्कूलों में मिडिल पास (10वीं कक्षा) शिक्षक बन जाते थे। मास्टर नम्बरदार सिंह भी बहुत मामूली अंग्रेजी पढ़े थे लेकिन हम बच्चों की रुचि को देखकर वे स्वयं मेरे गांव के ही बीए कर चुके परशुराम द्विवेदी से अंग्रेजी पढऩे के लिए अपने गांव से दो मील चलकर आते थे। ऐसे ही एक शिक्षक मुझे लखनऊ में वीएसएनवी डिग्री कालेज में बीए करते समय मिले थे। डा० विश्व शर्मा मिश्र हिन्दी पढ़ाते थे। वे क्लास में आते ही हम सभी से हाथ जोड़कर कहते थे कि मैं लेक्चर दे रहा हूं, बीच में कोई भी टोकेगा नहीं क्योंकि मैं स्वयं आज सबेरे पढ़कर आया हूं। जिस छात्र को कोई समस्या हो वह बाद में मुझसे पूछ लें, मैं बता दूंगा।
इस तरह के शिक्षकों की कमी अब भी नहीं है। महर्षि अरविन्द कहा करते थे कि शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली हुआ करते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में परिवर्तित कर देते हैं। आज ऐसे माली कहां सो रहे हैं। देश के युवा नशे की गिरफ्त में अपना स्वास्थ्य खो रहे हैं, आतंकवादी बन रहे हैं, नक्सली बन रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं, चोरी कर रहे हैं, अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करते तो समाज का सम्मान कैसे करेंगे। समाज में भू्रण हत्या, दहेज प्रथा और महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। युवाओं में संस्कारों का कहीं दर्शन नहीं हो रहा है तो इसके जिम्मेदार क्या शिक्षक अपने को नहीं मानते। कहते हैं एक अच्छा शिल्पकार किसी भी प्रकार के पत्थर को तराश कर उसे सुंदर आकृति का रूप देता है। एक अच्छा कुम्हार वही होता है जो गीली मिट्टी को सही आकार प्रदान कर उसे समाज के लिए उपयेागी बर्तन बना देता है।
इस बार शिक्षक दिवस पर डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन को नमन करते हुए सम्मानित होने वाले शिक्षक क्या इस बिन्दु पर भी विचार करेंगे कि वे गीली मिट्टी से ऐसे बर्तन क्यों नहीं बना पाये जो समाज के काम आ सकते थे। उन्होंने तो समाज के लिए, देश के लिए ऐसे दुश्मन तैयार कर दिये हैं जिन पर न हाथ उठाया जा सकता है और न उन्हें बर्दाश्त किया जा रहा है क्योंकि वे हमारे ही बच्चे हैं। (हिफी)