हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम संगीत युग के आखिरी पुरोधा, संगीतकार एस मोहिंदर पिछले तीन दशक से अमेरिका में ही रहते रहे और लॉक डाउन से पहले मुंबई आए थे। उनका निधन अपने आवास पर 6 सितम्बर 2020 को हृदयगति रुक जाने से हुआ था। आज की पीढ़ी अब भी उन्हें उनके संगीतबद्ध किए गीत ‘गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा, हाफिज खुदा तुम्हारा’ से याद करती है। एस मोहिंदर का 8 सितंबर 1925 को पंजाब के मोंटगोमरी जिले के सिल्लियांवाला गांव में हुआ था। एस मोहिंदर को संगीत का शौक अपने पिता सुजान सिंह बख्सी से मिला जो थे तो पुलिस में दरोगा लेकिन बांसुरी बहुत बढ़िया बजाते थे। अपने पिता की नौकरी के साथ साथ वह भी जगह जगह घूमे। ननकाना में उनके पिता लगातार चार साल रहे, वहीं एस मोहिंदर ने मैट्रिक की परीक्षा पास की औऱ वहीं के गुरुद्वारे में उन्होंने गायन की पहली शिक्षा हासिल की।
एस मोहिंदर ने अपने करियर में सैकड़ों सुरीले गीत बनाए और जब जमाना वेस्टर्न म्यूजिक की तरफ ताक ही रहा था तब उन्होंने पश्चिमी वाद्य यंत्रों में उस्तादी हासिल कर ली थी। एस मोहिंदर को बंबई (अब मुंबई) में पहला मौका 1948 में रिलीज हुई फिल्म ‘सेहरा’ के लिए मिला। इस फिल्म के लिए उन्होंने कुल 10 गीत तैयार किए। ये जानना भी यहां दिलचस्प रहेगा कि ये फिल्म अभिनेता गोविंदा के माता पिता (अरुण कुमार आहूजा और निर्मला देवी) की फिल्म थी। दोनों ने इस फिल्म में गाने भी गाए।
एस मोहिंदर की बंबई (अब मुंबई) में आमद भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है। वह आल इंडिया रेडियो के लिए काम किया करते थे और एक दिन घर वापस जाने के लिए लायलपुर स्टेशन पहुंचे तो पता चला उनकी ट्रेन कैंसिल हो चुकी है। जिधर से ट्रेन आनी थी, उधर दंगे छिड़ चुके थे। स्टेशन पर मौजूद कुली ने कहा कि जान बचानी हो तो सामने खड़ी ट्रेन मिले उसी में चढ़ जाओ। और, जो ट्रेन उस वक्त प्लेटफॉर्म से छूट रही थी वह एस मोहिंदर को लेकर बंबई आ गई। अनजान शहर में उतरते ही उन्होंने नजदीकी गुरुद्वारे का पता पूछा। दादर गुरुद्वारे में वह करीब एक महीने तक सबद कीर्तन गाते रहे और खुद को संभालते रहे। जेब में उस वक्त उनके एक विजिटिंग कार्ड सुरक्षित रह गया था जो मशहूर गायिका सुरैया ने उन्हें लाहौर में दिया था। महीने भर करीब गुरुद्वारे में रहने के बाद वह सुरैया से मिलने पहुंचे और सुरैया ने उन्हें बंबई में पहला आसरा औऱ सहारा दोनों दिए।
बंबई में रहते हुए एस मोहिंदर ने जब फिल्म ‘शादी की रात’ के लिए लता मंगेशकर से गाना गवाया तो उनकी शोहरत पूरे फिल्म जगत में रातों रात फैल गई। रंजीत मूवीज के मालिक सेठ चंदूलाल शाह ने उनको फिल्म ‘नीली’ के लिए साइन किया। फिल्म में हीरो देव आनंद थे और हीरोइन सुरैया। शाह की शर्त यही थी कि पैसे तभी मिलेंगे जब गाने सुरैया ओके कर देंगी। सुरैया तो पहले से एस मोहिंदर को जानती थीं, उन्होंने पहली बार में ही सारे गाने पास कर दिए और एस मोहिंदर को उस जमाने में तब 10 हजार रुपये मिले थे एक फिल्म के गाने बनाने के। इसके बाद तो एस मोहिंदर का नाम हो गया और उन्होंने खूब काम किया।
बेमिसाल हुस्न की मलिका मधुबाला से शादी का प्रस्ताव मिलने पर ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होता, जो उसे ठुकराने का ख्याल तक अपने दिल में ला पाता लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में एक शख्स ऐसा भी था जिसने इस मशहूर अदाकारा से मिले विवाह प्रस्ताव को काफी सोच, विचार के बाद ठुकराने का हौसला दिखाया था। वह शख्स थे संगीतकार एस मोहिन्दर। उनके पिता सुजान सिंह बक्शी पुलिस में सब इंस्पेक्टर थे। उन्हें संगीत विरासत में मिला था। उनके पिता बहुत अच्छी बांसुरी बजाते थे।
एस मोहिन्दर के नाम से आज की पीढी शायद ही परिचित हो। उन्होंने 1940 से 1960 के दशक में कुछ चुनींदा फिल्मों में बेहतरीन संगीत दिया था और कैरियर के शिखर पर वह अमेरिका में बस गए थे। ‘शीरीं फरहाद’ फिल्म में उनके स्वरबद्ध गीत काफी लोकप्रिय हुए थे। इनमें लता मंगेशकर का गाया और मधुबाला पर फिल्माया गुज़रा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा हाफिज खुदा तुम्हारा सदाबहार गीतों में शामिल है। कनाडा के टोरंटो की लेखिका इकबाल सिंह महाल ने अपनी पंजाबी पुस्तक सुरों दे सौदागर में अभिनेत्री मधुबाला से एस मोहिन्दर को मिले विवाह प्रस्ताव की घटना का जिक्र किया है। मधुबाला ने लंबे-ऊंचे कद के खूबसूरत एस मोहिन्दर के सामने शादी का प्रस्ताव रखा था जबकि वह अच्छी तरह से जानती थीं कि एस मोहिन्दर का सुखमय वैवाहिक जीवन है और उनके बच्चे भी हैं। मधुबाला ने उनकी पत्नी के गुजारे और उनके बच्चों की पढाई-लिखाई के लिए हर महीने आर्थिक सहायता के रूप में भारी-भरकम रकम देने की पेशकश भी की थी। एस मोहिन्दर मधुबाला से मिले विवाह प्रस्ताव को एकदम नहीं ठुकरा पाऐ। वह कई दिन तक इस पर विचार करते रहे और आखिरकार अपनी जिन्दगी का सबसे अहम फैसला करते हुए उन्होंने मधुबाला से ‘नहीं’ कहने की हिम्मत जुटा ही ली।
1956 में रिलीज हुई फिल्म ‘शीरीं फरहाद’ के गाने ‘गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा, हाफिज खुदा तुम्हारा’ ने उन्हें चोटी के संगीतकार के तौर पर स्थापित कर दिया। साठ के दशक तक वह लगातार काम करते रहे। तमाम पंजाबी फिल्मों में भी उन्होंने संगीत दिया। 1969 में रिलीज हुई फिल्म ‘नानक नाम जहाज’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला। 1982 में वह अपने परिवार के साथ वाशिंगटन जाकर रहने लगे थे। लेकिन, इसके बाद भी उनका मुंबई आना जाना नियमित लगा रहता था। अमर उजाला -पंकज शुक्ल