अभिषेक त्रिपाठी। एक दूसरे से अनजान दो लोग, मिलते हैं कहीं, और हो जाता है मन से मन का मेल। वे अचानक एक धूमकेतु की तरह प्रकट होते हैं, एक चमकदार रोशनी, एक नयी मदमस्त कर देने वाली हवा की तरह, जो सबकुछ भुलाकर अपने आप में मिला लेने की कशिश पैदा कर दे, बस एक पल में, फिर हम सुनते हैं वो गाने फिज़ाओं में गूँजते हुये-“जिया बेक़रार है, छायी बहार है, आजा मोरे बालमा, तेरा इन्तजार है”, “हवा में उड़ता जाये, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का”,“मुझे किसी से प्यार हो गया” और ये सच है कि हर किसी को उनसे प्यार हो गया। वो मिले तो बस एक दूसरे के होकर रह गये। या कहें कि एक दूसरे में समाकर एक शख़्सियत, एक प्राण बन गये। शंकर जयकिशन। जी हाँ, दो लोगों से मिलकर बना यह नाम- शंकर जयकिशन एक शख़्सियत है, एक शाहकार है, एक ब्राण्ड है, एक किस्म है संगीत की, एक नशा है जिसमें लगभग पच्चीस वर्षों तक लगातार पूरा भारत और अनेक देशों में उनके चाहने वाले डूबे रहे। कुछ ऐसे डूबे कि तब अपने बचपन से जवानी और अब बुढ़ापे तक भी वो नशा तारी है। यही हाल अब भी है और हमेशा रहेगा। शंकर जयकिशन नाम एक तिलिस्म है, जो टूटता नहीं कभी।
सिनेमाई संगीत में क्लासिकी की बात हो या व्यावसायिकता की, नयेपन की बात हो या परम्पराओं से जुड़ाव की, रचनात्मकता की बात हो या उच्छृँखल मस्तमौला उड़ानों की, शंकर जयकिशन हर कसौटी पर एक नयी बेमिसाल इबारत लिख देते हैं। भारतीय सिनेमाई संगीत की दिशा और दशा तय करने का सबसे ज़्यादा श्रेय यदि शंकर जयकिशन को दे दिया जाए तो कोई ग़लत बात नहीं होगी। उन्होंने वो किया जो पहले किसी ने नहीं किया था और उनके बाद भी कोई उनकी तरह नहीं कर सका फ़िल्म संगीत में।
“4 नवम्बर 1932 को जन्मे जयकिशन मूलत: गुजरात के वलसाड़ ज़िले के बासंदा गाँव के लकड़ी का सामान बनाने वाले परिवार से थे। परिवार ग़रीब था और जयकिशन के बड़े भाई बलवंत भजन मंडली में गा-बजाकर कुछ योगदान करते थे। प्रारम्भिक संगीत की शिक्षा बाड़ीलाल और प्रेमशंकर नायक से मिली। बासंदा की ही प्रताप सिल्वर जुबली गायनशाला में उस वक़्त के मंदिरों के त्यौहार-संगीत और गुजराती आदिवासियों के नृत्य संगीत के तत्त्व उन्हीं दिनों जयकिशन के मन में घर कर गये जिसके कई रंग बाद में उनके संगीत में भी समय समय पर झलके। भाई बलवंत की नशे की लत से मौत के बाद जयकिशन अपनी बहन रुक्मिणी के पास वलसाड़ आ गये और अपने बहनोई दलपत के साथ कारखाने में कुछ दिन काम किया, फिर दलपत के साढू के पास बम्बई में ग्रांट रोड के पास रहते हुए एक कपड़े के कारखाने में काम करने के साथ साथ ऑपेरा हाउस के स्थित विनायक राव तांबे की संगीतशाला में हारमोनियम का रियाज़ जारी रखा।”
सीधे-सीधे यदि संगीत की कुछ विशेषताओं की बात करें तो भारतीय रागों पर आधारित इतनी सुगम धुनें इन्होंने बनाई हैं कि बड़े-बड़े उस्ताद भी मुरीद हो जायें। एक ही राग पर आधारित दो अलग-अलग गीतों, जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म-मेरा नाम जोकर) और “दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर” (फ़िल्म- ब्रह्मचारी) को सुनेंगे तो आप समझेंगे कि एक ही मूड और एक ही राग शिवरंजनी होते हुये भी दोनो का रंग कितना अलग है। शंकर जयकिशन सिर्फ़ धुनों के तिलिस्म ही नहीं रचते, वो अपने म्यूजिक अरैंजर सेबेस्टियन और दत्ताराम के साथ आर्केस्ट्रा से एक सदाबहार सिम्फनी पैदा करते हैं, ऐसी सिम्फनी जिसकी तुलना आप पाश्चात्य संगीत के किसी भी बड़े कंपोजर जैसे स्ट्रँाविन्सकी, टैकियोकोव्स्की, बैख़, मोज़ार्ट या बीथोवन की रचनाओं से कर सकते हैं। शंकर जयकिशन के अनेक गानों में शुरुआती संगीत यानी प्रील्यूड अपने-आप में इसकी मिसाल हैं। यदि आप सुनें “मुझे कितना प्यार है तुमसे”, “दिल तेरा दिवाना है सनम”, “दोस्त दोस्त न रहा”, “अलबेले सनम”, “आ जा रे आ ज़रा”, “रात के हमसफ़र”, तो आप मेरी इस बात को ज़रूर मान जायेंगे। ऐसे प्रील्यूड्स उनके बाद बहुत कम ही बने। उनके अरैन्जर सेबेस्टियन पाश्चात्य संगीत में सिद्धहस्त थे और अनेक पाश्चात्य संगीतकारों की रचनाधर्मिता का प्रभाव उनके आर्केस्ट्रा अरैन्जमेन्ट में दिखाई भी पड़ता है, ऐसा मेरा मानना है।
शंकर जयकिशन के आर्केस्ट्रा में पाश्चात्य संगीत की क्लासिकी की बहुत ही सुंदर चीज़ें जैसे आॅब्लिगेटो, काउंटर प्वाइंट, काउंटर मेलोडी इत्यादि, जो एक आधारभूत हार्मोनिक संरचना के लिये आवश्यक है, भी बड़े महत्वपूर्ण रूप से प्रयोग की गई हैं। शंकर जयकिशन के समय में कार्यशील रहे कुछ म्यूजीशियन्स और अरैन्जर्स से मेरी मुम्बई प्रवासों के दौरान मुलाकातें हुईं हैं और वे सब इन खूबियों के बारे मे बातें करते नहीं थकते। शंकर जयकिशन की ज़्यादातर धुनों में एक और ख़ास बात है कि उनके मुखड़ों और अंतरों में कोई क्राॅस लाइन नहीं है। क्राॅस लाइन धुन का वो हिस्सा या टुकड़ा है जिसके बाद वापस मुखड़ा शुरू होता है। इसके साथ-साथ ही साधारण मेलोडी के छोटे-छोटे टुकड़े ही उनके मुखड़े हैं, इन्टरल्यूड और अंतरे भी बिल्कुल वैसे ही। मेरी बात को समझना हो तो आप सुनियेगा- ‘तेरा मेरा प्यार अमर, फिर क्यों मुझको लगता है डर’ या फिर ‘ऐ फूलों की रानी, बहारों की मलिका, तेरा मुस्कुराना ग़ज़ब हो गया।’
ये हैं धुनों के रूप में सबसे साधारण और बेहद अर्थपूर्ण वाक्य। ऐसे गानों की भरमार है शंकर जयकिशन के पास।
पृथ्वी थियेटर से दोस्ती और फिर फ़िल्म बरसात के 1949 में आने के बाद से एक लम्बा अरसा शंकर जयकिशन की जयगाथा से भरा पड़ा है। ज़ाहिर है ऐसी सफलता बहुत से लोगों को रास न आयी। फिर न जाने कितने अच्छे-बुरे किस्से भी नुमाया हुये। लगभग 1963 के आसपास, ऐसी बहुत सी घटनायें और किस्से हैं जिन्हें बाॅलीवुड में आज भी ज़िन्दा शक्ल में सुना जा सकता है। लेकिन इस सब के बाद भी इनका नाम और ऊँचा होता गया। आसमाँ शंकर जयकिशन के आगे झुकता गया।
और एक दिन, जो न सोचा था किसी ने, वो हो गया। वो गाना जिसे अभी-अभी ही तो बनाया था, वो सच हो गया- “ज़िन्दगी इक सफ़र है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना”। 12 सितम्बर, 1971, दोपहर करीब एक बजे के आसपास का वक़्त, एक सुरीला नगमा चलते-चलते थम गया। शंकर का “मेरा जय” इस दुनिया से रूख़सत हो गया।
जयकिशन का जाना फ़िल्म इंडस्ट्री में एक भूचाल लेकर आया। उस दिन से जैसे सब कुछ बदल गया। इसके बाद का समय इस शाहकार के अवसान की कहानी भर है। ऐसी नहीं है कि धुनें अच्छी नहीं बनी, संगीत अच्छा नहीं बना। बस वक़्त का पहिया कुछ अलग तरह से घूमने लगा था। इस दौर मंे लगभग सारी फ़िल्में कुछ कमाल नहीं कर सकीं बस। और उनका जो मका़म था वो जाता रहा।
आज हम जयकिशन जी को उनके जाने के बाद याद कर रहे हैं तो उनकी ज़िन्दादिली, दोस्ती और खुशमिज़ाजी को भी याद करें। उन्हें एक्टिंग का शौक था । कुछ फ़िल्मों में उन्हें स्क्रीन पर देखा जा सकता है। देखना चाहते हो तो उनके ही गाने “मुड़-मुड़ के न देख मुड़-मुड़ के” और “ऐ प्यासे दिल बेजु़बाँ” में देखियेगा। खूबसूरत इतने थे कि पार्टियों में नौजवान लड़कियाँ उस ज़माने के मशहूर अभिनेताओं को छोड़कर जयकिशन के इर्द-गिर्द जमा हो जातीं थी। राजकपूर ने उनका नाम ही छलिया रख दिया था। उस ज़माने के रेडियो सीलोन के बेहद मशहूर लोगों में से एक एनाउन्सर गोपाल शर्मा, 1957 से ही जयकिशन से काफी घुले मिले थे। अभी हाल ही में मेरी उनसे टेलीफोन पर जयकिशन के बारे में लम्बी चर्चा हुई। उन्होंने जयकिशन के जो कुछ किस्से मुझे सुनाये, उसी में से एक किस्सा उन्हीं की जुबानी- “ ये किस्सा मुझे जयकिशन ने बताया था। एक बार जयकिशन अरब मंे किसी होटल में बैठे हुये थे और एक मातृरूप की एक मुस्लिम औरत इनके पास आयी और आकर इनकी बलायें लेते हुये चश्मे बद्दूर कह रही थी। ये शब्द इनके दिमाग में बैठ गया। शायद उर्दू का होने के कारण इसका मतलब उन्हें समझ नहीं आया। जब ये हिन्दुस्तान वापस आये, तो इन्होंने हसरत जयपुरी से पूछा- ‘यार ये चश्मे बद्दूर का क्या मतलब होता है।’ हसरत बोले- ‘इसका मतलब होता है, खूबसूरत चेहरे को किसी की नज़र न लगे। फिर जयकिशन बोले, तो इसका गाना बनाया जाये, ये नया शब्द हो और फिर हसरत और जयकिशन ने गाना बनाया- “तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र लगे, चश्में बद्दूर” गोपाल शर्मा ने ऐसे अनेक किस्से अपनी प्रकाशित आत्मकथा- ‘आवाज़ की दुनिया के दोस्तों’ में बड़ी खूबी से बयान किये हैं।
जयकिशन खुशमिज़ाज ऐसे थे कि क्या कहने। कहते हैं कि एक बार पेरिस के किसी क्लब में रात के समय किसी लड़की की सितारों से सजी चमक-दमक वाली ड्रेस देखकर जयकिशन, हसरत जयपुरी से गुनगुनाते हुये कहा- “बदन पे सितारे लपेटे हुये, ऐ जाने तमन्ना किधर जा रही हो”, तब हसरत ने तुरंत ही आगे कह दिया- “जरा पास आओ तो चैन आ जाए”। पेरिस से लौटकर उन्होंने यह गीत तुरंत रिकार्ड किया। आप समझ सकते हैं कि वो अपने काम को कितने मिज़ाज से करते थे।
उनको याद करते हुये बहुत से गाने बरबस याद आ रहे हैं- ‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल, गम की दुनिया से दिल भर गया’ ‘याद किया दिल ने कहाँ हो तुम, झूमती बहार है कहाँ हो तुम’ ‘बहारो फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है’ ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर, के तुम नाराज़ मत होना’ ‘मुझको अपने गले लगा लो, ओ मेरे हमराही’ ‘पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ, मस्त गगन में’।
कहते हैं कि बैकग्राउण्ड म्यूजिक और फ़िल्मों के टाइटल सांग वो बहुत ही सटीक बनाते थे। नौजवान पीढ़ी में कम ही लोगों को मालूम होगा कि सत्तर के दशक में शंकर जयकिशन ने हिन्दुस्तानी रागों तोड़ी, कलावती, शिवरंजनी, पीलू आदि को जाज़ म्यूजिक के रूप में एक एल्बम में प्रस्तुत किया, जिसका नाम था- ‘रागा जाज़ स्टाइल’। मौका लगे तो एक बार सुनिएगा ज़रूर।
जयकिशन मुम्बई के चर्चगेट उपनगर के गेलार्ड रेस्टोरेन्ट में अपने दोस्तों के साथ ज़्यादातर देर शाम के वक़्त में बैठते थे। उनकी टेबल उनके जाने के बाद एक महीने तक उनके लिये रिजर्व करके रखी गई थी। और उस पर लिखा था ‘रिज़वर््ड फाॅर मिस्टर जयकिशन’। ये उनकी दोस्ती और लगाव के लिये बहुत बड़ा सम्मान था। शंकर और जयकिशन की दोस्ती ऐसी थी कि जयकिशन के अंतिम दिनों में, जब वे लिवर की गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे, शंकर रोज़ मुम्बई के महालक्ष्मी मंदिर में जाकर पूजा करते थे और प्रसाद देकर घंटो उनके पास बैठे रहते थे। मैंने शंकर के कुछ रेडियो इन्टरव्यू सुने हैं, उन सब में शंकर अपने साथी जयकिशन के लिये कहते हैं- ‘मेरा जय’। ये सुन के लगता है कि उन दोनों के बीच दरार और मनमुटाव जैसी कहानियाँ कितनी मनगढं़त और बेमानी रही होंगी। ऐसी अनेक कहानियाँ, अनंत किस्से हैं। शंकर जयकिशन फैन्स ऐसोशिएशन इंटरनेशनल नाम की संस्था है जो लगातार उनके बारे में चर्चा करती है और जिसके माध्यम से बहुत सी जानकारियाँ शंकर जयकिशन के बारे में इंटरनेट पर उपलब्ध हो सकी हैं।
शंकर जयकिशन की बात हो और बिना राजकपूर के, ऐसा सम्भव नहीं है। राजकपूर की फ़िल्म बरसात, राजकपूर के लिये सफलता के जो कीर्तिमान रच गई और जिसका योगदान आर0के0 फ़िल्म्स को स्थापित करने में महत्वपूर्ण माना जा सकता है, उसमें एक शानदार काम्बिनेशन भारतीय फ़िल्म इतिहास को मिला। बरसात, फ़िल्म इण्डस्ट्री में प्रतिभा, हुनर, कला, व्यावसायिकता और बेमिसाल हीरों की बरसात लेकर आई। इस एक ही फ़िल्म से अचानक ही एक नई ऊर्जा का जैसे विस्फोट सा हुआ और राजकपूर, शंकर जयकिशन, हसरत जयपुरी, लता, मुकेश, शैलेन्द्र जैसे सितारे फ़िल्मी आसमान पर छा गये। इस फ़िल्म से टाइटल सांग की शुरुआत भी मानी जा सकती है। सम्भवतः भारतीय फ़िल्म संगीत का पहला कैबरे गाना ‘पतली कमर है तिरछी नज़र है’ भी इसी फ़िल्म ने दिया। इसी फ़िल्म में शंकर जयकिशन के साथ एक बहुत बड़े आर्केस्ट्रा का आगाज़ सिनेमाई संगीत में व्यवस्थित रूप से दिखाई देना शुरू हुआ। इसके बाद शंकर जयकिशन ने राजकपूर की लगभग सभी फ़िल्मों का संगीत दिया, जब तक कि जयकिशन जीवित रहे। राजकपूर इनके साथ राजकपूर की प्रमुख फ़िल्मों में बरसात के अलावा बूट पाॅलिश, जिस देश में गंगा बहती है, श्री 420, चोरी-चोरी, आवारा, संगम और आख़िरी फ़िल्म मेरा नाम जोकर प्रमुख हैं।
उनकी कुछ एक फ़िल्मों को छोड़कर लगभग सारी फ़िल्में ऐसे-ऐसे गीतों, ऐसी-ऐसी धुनों के साथ आयीं जो अपने आप में रसिकों के लिये एक अनिवार्य स्वाद की तरह हैं तो संगीत सीखने वालों के लिये भी एक उम्दा पाठ की तरह। शंकर जयकिशन के एकलव्य जैसे न जाने कितने शार्गिद इस दुनिया में होंगे जिन्होंने उनके संगीत को सुनकर बहुत कुछ सीखा होगा और बहुत नाम भी कमाया होगा। जयकिशन के जाने के बाद ये जादू बरकरार नहीं रह सका। कारण कुछ भी हो, पर शंकर जयकिशन ब्राण्ड की सफलता के साथी और गवाह रहे बड़े साथियों, जिनमें राजकपूर भी शामिल हैं, ने उनसे किनारा कर लिया। कहते तो यहाँ तक है कि आर0के0 और कुछ अन्य लोगों ने इस दौर में उनकी बनाई पुरानी धुनों को उस जमाने के उगते सूरजों के नाम के हवाले कर दिया। हालांकि शंकर इस ब्राण्ड यानी शंकर जयकिशन के साथ ही लगभग 15 वर्षों बाद तक भी काम करते रहे और फिर भी इन सब बातांे के खि़लाफ़ उन्होंने कोई बात नहीं कही। तो शायद असलियत अनकही है आज भी। बदलते दौर और उसमें संगीत के बदलते मिज़ाज को शायद जयकिशन भाँप रहे थे पर उनके जाने के बाद जिस तरह फ़िल्में और उनका संगीत बाक्स आॅफिस पर पिटे तो लगता है नये जमाने की ज़रूरतें समझना इतना आसान नहीं था। लगभग शुरुआत से ही उनके साथ रहे म्यूजिक अरेंजर सेबेस्टियन डिसूजा भी जयकिशन के जाने के बाद 1974 के आसपास अपने घर गोवा वापस लौट गये और इस तरह हिन्दुस्तानी सिनेमाई मौसिकी मंे आर्केस्ट्रा को एक बड़े कैनवास पर डिजाइन करने वाला एक महत्वपूर्ण स्तंभ भी इस ब्राण्ड से अलग हो गया। सेबेस्टियन का घर वापस जाना जैसे ताबूत में आख़िरी कील की तरह था।
शंकर जयकिशन जैसे विशालकाय नाम को इतने कम शब्दों में समेटना कतई संभव नहीं है। इस संगीत के बारे में बातें शुरू होती हैं तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं। ‘आह’ फ़िल्म का एक गीत है- ‘सुनते थे नाम हम, जिनका बहार से, देखा तो डोला जिया झूम-झूम के’।
वाकई ग़ज़ब है भई। चाहे धुन सुनिये, बोल सुनिये, लता मंगेशकर को सुनिये, ढोलक सुनिये, हारमोनियम सुनिये। और कितनी ही बार सुनिये। उस पर प्रील्यूड और इन्टरल्यूड, विश्वास मानिये, आपका कभी मन नहीं भरेगा। झूमते रहेंगे बस मन ही मन में। शंकर जयकिशन की किसी फ़िल्म के सारे गाने आप देखिये सब एक से बढ़कर एक मिलेंगे। फ़िल्म ‘दिल एक मन्दिर’ में ही देखिये- ‘याद न जाये, बीते दिनों की,………’ या फिर ‘रुक जा रात, ठहर जा रे चंदा, बीते न मिलन की बेला’, उसके बाद टाइटल सांग ‘दिल एक मन्दिर है’, और भी हैं अभी। याद है ये गीत ‘जूही की कली मेरी लाडली’ और ‘हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे’। एक ही फ़िल्म में इतने सारे सुपरहिट गाने। है ना कमाल। शंकर जयकिशन अपनी ज़्यादातर फ़िल्मों में ये कमाल करते हैं। प्रिंस, जंगली, राजकपूर, सीमा, एव इवनिंग इन पेरिस, संगम, आह, अनाड़ी…………..कितने नाम गिनाता जाऊँ।
शंकर जयकिशन की कितनी ही खासियतें हैं। रोज़ नयी मिलती जायेंगी। एक तिलिस्म, जो टूटता नहीं कभी, रोज़ कुछ नयी बातें, पुराने गीत जो फिर से नये लगने लगते हैं। चाहे उनका आर्केस्ट्रा हो, चाहे उनकी धुन हों, चाहे उनके वाल्ट्ज स्टाइल वाले रिदम पर बात हो या ढोलक के ठेकों पर। भारतीय, लैटिन, पाश्चात्य, अरबी संगीत के प्रभाव की बात हो या फिर लोक संगीत के कमाल की। गायकी की बात हो या भावों की। हर जगह लाजवाब।
शंकर जयकिशन ने शारदा से बहुत से गीत गवाये, वो एक खास किस्म की आवाज़ की गायिका हैं, पर ये संगीत की समझ का कमाल है कि उनके कितने ही गाने सुपरहिट हुये। ‘तितली उड़ी’ शारदा का पहला और सर्वाधिक पापुलर गाना है। शारदा के कुछ और गीत सुनियेगा- ‘चले जाना ज़रा ठहरो, किसी का दिल मचलता है’ ‘अलबेले सनम तू लाया है कहाँ’, ‘हुस्नेे ईरान’। आप भले शारदा की गायकी से कदापि प्रभावित न हों, पर शंकर जयकिशनी फ्लेवर के क़ायल हो ही जायेंगे। ये उनके संगीत निर्देशन की ताक़त है।
शंकर जयकिशन ने बहुत से नये कलाकारों को अपने साथ काम करने का मौका दिया और उनकी दस्तक और आमद से हम सबको परिचित कराया। लता मंगेशकर के अलावा, सुमन कल्याणपुर, मुबारक बेगम, शारदा, सुबीर सेन जैसे गायकों से सुपरहिट धुने प्रस्तुत करके शंकर जयकिशन ने इन्हें पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
शंकर जयकिशन को अपने जीवन से दूर रखना किसी के बस की बात नहीं। हर मौके पर उनका कोई गीत सामने आकर खड़ा हो जाता है और हमारी अपनी आवाज़, अपना भाव, अपना जज़्बा बना जाता है। जयकिशन की पुण्यतिथि के बहाने ही सही, इस मौके पर उन्हीं के गीत से अपनी बात खत्म करता हूँ- तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे। हाँ तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे।