मुबारक साल गिरह
माला सिन्हा बॉलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। माला सिन्हा ने फिल्मों में लंबा सफर तय किया और अपनी अलग पहचान बनाई। वे बांग्ला फिल्मों से हिंदी फिल्मों में आई थीं। बादशाह से हिंदी फिल्मों में प्रवेश करने वाली माला सिन्हा ने एक सौ से कुछ ज्यादा फिल्में कीं। 11 नवंबर, 1936 को जन्मी माला सिन्हा के पिता बंगाली और मां नेपाली थी।
उनके बचपन का नाम “आल्डा” था। स्कूल में बच्चे उन्हें “डालडा” कहकर चिढ़ाते थे जिसकी वजह से उनकी मां ने उनका नाम बदलकर “माला” रख दिया। उन्हें बचपन से ही गायिकी और अभिनय का शौक था। उन्होंने कभी फिल्मों में पार्श्व गायन तो नहीं किया पर स्टेज शो के दौरान उन्होंने कई बार अपनी कला को जनता के सामने रखा। माला सिन्हा ने ऑल इंडिया रेडियो के कोलकाता केंद्र से गायिका के रूप में अपना करियर शुरू किया और जल्दी ही बांग्ला फिल्मों के माध्यम से रुपहले पर्दे पर पहुंच गई। उन्होंने बंगाली फिल्म “जय वैष्णो देवी” में बतौर बाल कलाकार काम किया। उनकी बांग्ला फिल्मों में “लौह कपाट” को अच्छी ख्याति मिली। जब माला सिन्हा हिंदी फिल्मों में काम करने मुंबई आईं तब रुपहले पर्दे पर नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन अपने जलवे बिखेर रही थीं। माला के लगभग साथ-साथ वैजयंती माला और वहीदा रहमान भी आ गईं।
इन सबके बीच अपनी पहचान बनाना बेहद कठिन काम था। इसे माला का कमाल ही कहना होगा कि वे पूरी तरह से कामयाब रहीं। फिल्म “बादशाह” के जरिए माला सिन्हा हिंदी फिल्म के दर्शकों के सामने आईं। शुरू में कई फिल्में फ्लॉप हुईं। फिल्मी पंडितों ने उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाए. कुछ यह कहने में भी नहीं हिचकिचाए कि यह गोरखा जैसे चेहरे-मोहरे वाली युवती ग्लैमर की इस दुनिया में नहीं चल पाएगी। इन फब्तियों की परवाह न कर माला सिन्हा ने अपने परिश्रम, लगन और प्रतिभा के बल पर अपने लिए विशेष जगह बनाई। 1957 में आई प्यासा फिल्म ने माला सिन्हा की किस्मत बदल दी। इस फिल्म में उनकी अदाकारी को आज भी लोग याद करते हैं। इसके बाद तो जैसे समय ही बदल गया। फिल्म श्जहांआराश् में माला सिन्हा ने शाहजहां की बेटी जहांआरा का किरदार खूबसूरती से निभाया। फिल्म मर्यादा में उन्होंने दोहरी भूमिका की थी। 60 के दशक में तो उन्होंने कई हिट फिल्में दीं। उनकी यादगार फिल्मों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-प्यासा (1957) फिर सुबह होगी,देवर भाभी (1958) उजाला,धूल का फूल (1959) धर्मपुत्र (1961) अनपढ़, हरियाली और रास्ता, दिल तेरा दीवाना (1962) गुमराह,गहरा दाग (1963) आंखें (1968) गीत (1970) जहांआरा (1964) हिमालय की गोद में (1965) अपने हुए पराये (1966) संजोग (1971) नई रोशनी (1967) मेरे हुजूर (1969) । हिंदी सिनेमा में ऐसी बहुत कम अभिनेत्रियां हुई हैं, जिन्हें परदे पर देखकर आम महिला दर्शक अपनी निजी जिंदगी से जोडने लगें और सिर्फ इसी वजह से उन्हें पारिवारिक और सामाजिक फिल्मों में लगातार काम मिलता रहे। माला सिन्हा की गिनती ऐसी ही अदाकाराओं में की जा सकती है। जब माला सिन्हा हिंदी फिल्मों में काम करने मुंबई आईं, तब नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन जैसी अभिनेत्रियों का दबदबा था। इसी दौरान वैजयंती माला और वहीदा रहमान भी फिल्मों में कदम रख चुकी थीं। लेकिन बात जब पारिवारिक फिल्मों की चलती थी, तो माला सिन्हा का नाम ही सबसे पहले आता था। फिल्मकारों का मानना था कि उन्हें परदे पर देखकर महिलाएं अपने आंसू नहीं रोक पाती हैं। माला सिन्हा की इसी खूबी ने उन्हें उन निर्देशकों का प्रिय बना दिया, जो आंसू और कहकहों के बीच फैमिली ड्रामा चित्रित करने में माहिर थे। हालांकि माला सिन्हा में हर तरह की भूमिका निभाने की क्षमता थी। यही वजह है कि उस वक्त के हर डायरेक्टर ने उनके साथ काम किया।
केदार शर्मा, बिमल राय, सोहराब मोदी, बी. आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा, अरविंद सेन, रामानंद सागर, शक्ति सामंत, गुरुदत्त, विजय भट्ट, ऋषिकेश मुखर्जी, सुबोध मुखर्जी और सत्येन बोस जैसे फिल्मकारों ने माला सिन्हा को अपनी फिल्मों की हीरोइन बनाया। माला सिन्हा की पहली फिल्म 1954 में आई थी और 1985 तक वह लगातार काम करती रहीं। 1985 में “दिल तुझको दिया” के बाद माला को लगा कि बढ़ती उम्र और ग्लैमर के अभाव में उनका जमाना सिमट गया है। मां और दीदी जैसे कैरेक्टर रोल में वे आना नहीं चाहती थीं। इसलिए ऐसे प्रस्ताव न मानकर उन्होंने फिल्मों से छुट्टी ले ली। 1991 में राकेश रोशन उन्हें “खेल” में फिर से कैमरे के सामने लाने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने दो फिल्में “राधा का संगम” (1992) और “जिद” (1994) कीं, उसके बाद फिल्मों को अलविदा कह दिया।
1966 में माला सिन्हा को नेपाली फिल्म ‘माटिघर’ में काम करने का मौका मिला। इसी दौरान उनकी मुलाकात फिल्म के अभिनेता चिदंबर प्रसाद लोहानी से हुई जो इस फिल्म के नायक थे। फिल्म में काम करने के दौरान माला सिन्हा को उनसे प्रेम हो गया और 16 मार्च 1968 के दिन दोनों ने शादी कर ली। फिल्मों में अभिनय जारी रखने की शर्त पर शादी तीन रीति-रिवाजों के जरिए पूरी हुई। लीगल सिविल मैरिज, क्रिश्चियन पद्धति से चर्च में शादी और नेपाली तौर-तरीकों से, क्योंकि माला की मां नेपाली थीं। माला कितनी ही बड़ी अभिनेत्री क्यों न बन गई थीं, मगर अपने पिता से हमेशा डरती थीं। घर आते ही सादगी से रहती थीं। उनकी मां उन्हें घरेलू लड़की ही मानती थीं, जो स्टार-स्टेटस घर के बाहर छोड़ आती थी। रसोईघर में जाकर खाना बनाना और फिर प्रेम से मेहमानों को खिलाना माला के शौकघ् रहे हैं।
माला सिन्हा इन दिनों मुम्बई में ही रहती हैं। उनकी बेटी प्रतिभा सिन्हा ने भी फिल्मों में अपना रास्ता तलाशने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलत नहीं मिली। अपनी बेटी की फिल्मों की विफलता ने माला सिन्हा को भी निराश कर दिया और उन्होंने इंडस्ट्री के लोगों से दूरी बना ली।एजेन्सी।