एजेंसी। सामाजिक न्याय और परिवर्तनकारी राजनीति की शुरुआत करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह देश भारत के आठवें प्रधानमंत्री थे।जहाँ वी पी सिंह ने ओर राजनीति में स्वच्छता का बीड़ा उठाया, वहीं दूसरी ओर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करवाई।राजीव गांधी सरकार के पतन के कारण बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आम चुनाव के माध्यम से 2 दिसम्बर, 1989 को प्रधानमंत्री पद प्राप्त किया था।
विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून, 1931 संयुक्त प्रान्त अब उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद ज़िले में हुआ था। वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे। उनका विवाह 25 जून, 1955 को अपने जन्म दिन पर ही सीता कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ था। इन्हें दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। श्री सिंह ने इलाहाबाद में ‘गोपाल इंटरमीडिएट कॉलेज’ की स्थापना की थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। वह 1947-1948 में उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी की विद्यार्थी यूनियन के अध्यक्ष रहे। विश्वनाथ प्रताप सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्टूडेंट यूनियन में उपाध्यक्ष भी थे। 1957 में उन्होंने ‘भूदान आन्दोलन’ में सक्रिय भूमिका निभाई थी। सिंह ने अपनी ज़मीनें दान में दे दीं। इसके लिए पारिवारिक विवाद हुआ, जो कि न्यायालय भी जा पहुँचा था। वह इलाहाबाद की ‘अखिल भारतीय कांग्रेस समिति’ के अधिशासी प्रकोष्ठ के सदस्य भी रहे। राजनीति के अतिरिक्त इन्हें कविता और पेटिंग का भी शौक़ था। इनके कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए और पेटिंग्स की प्रदर्शनियाँ भी लगीं।
विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने विद्यार्थी जीवन में ही राजनीति से दिलचस्पी हो गई थी। वह समृद्ध परिवार से थे, इस कारण युवाकाल की राजनीति में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उनका सम्बन्ध भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ हो गया। 1969-1971 में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुँचे। उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का कार्यभार भी सम्भाला। उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 9 जून, 1980 से 28 जून, 1982 तक ही रहा। इसके पश्चात्त वह 29 जनवरी, 1983 को केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री बने। विश्वनाथ प्रताप सिंह राज्यसभा के भी सदस्य रहे। 31 दिसम्बर, 1984 को वह भारत के वित्तमंत्री भी बने। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में विश्वनाथ प्रताप सिंह उस समय वित्तमंत्री थे, जब राजीव गांधी के साथ में उनका टकराव हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास यह सूचना थी कि कई भारतीयों द्वारा विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा करवाया गया है। इस पर वी. पी. सिंह अर्थात् विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अमेरिका की एक जासूस संस्था ‘फ़ेयरफ़ैक्स’ की नियुक्ति कर दी ताकि ऐसे भारतीयों का पता लगाया जा सके।
स्वीडन ने 16 अप्रैल, 1987 को यह समाचार प्रसारित किया कि भारत में बोफोर्स कम्पनी की 410 तोपों का सौदा हुआ था, उसमें 60 करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी। जब यह समाचार भारतीय मीडिया तक पहुँचा तो वह प्रतिदिन इसे सिरमौर बनाकर पेश करने लगा। इस ‘ब्रेकिंग न्यूज’ का उपयोग विपक्ष ने भी ख़ूब किया। उसने जनता तक यह संदेश पहुँचाया कि 60 करोड़ की दलाली में राजीव गांधी और उनके पारिवारिक सदस्यों की संलिप्तता थी। यद्यपि यह एकदम झूठ था और बाद में साबित भी हुआ। राजीव गांधी को भारतीय न्यायालय ने क्लीन चिट भी प्रदान कर दी। बोफोर्स कांड के सुर्खियों में रहते हुए 1989 के चुनाव भी आ गए। वी. पी. सिंह और विपक्ष ने इसे चुनावी मुद्दे के रूप में पेश किया। वी. पी. सिंह ने 1987 में कांग्रेस द्वारा निष्कासित किए जाने पर जनता के मध्य जाकर यह दुष्प्रचार करना आरम्भ कर दिया कि कांग्रेस सरकार में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है।
वी. पी. सिंह ने एक ओर जनता के बीच अपनी सत्यवादी हरिश्चन्द्र की छवि बनाई तो दूसरी ओर कांग्रेस को तोड़ने का काम भी आरम्भ कर दिया। जो लोग राजीव गांधी से असंतुष्ट थे, उनसे वी. पी. सिंह ने सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। वह चाहते थे कि असंतुष्ट कांग्रेसी राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाएँ। उनकी इस मुहिम में पहला नाम था – आरिफ़ मुहम्मद का। आरिफ़ मुहम्मद एक आज़ाद एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। इस कारण वह चाहते थे कि इस्लामिक कुरीतियों को समाप्त किया जाना आवश्यक है। आरिफ़ मुहम्मद तथा राजीव गांधी एक-दूसरे के बेहद क़रीब थे लेकिन एक घटना ने उनके बीच गहरी खाई पैदा कर दी। दरअसल हुआ यह कि हैदराबाद में शाहबानो को उसके पति द्वारा तलाक़ देने के बाद मामला अदालत तक जा पहुँचा। अदालत ने मुस्लिम महिला शाहबानो को जीवन निर्वाह भत्ते के योग्य माना। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथी चाहते थे कि ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के आधार पर ही फैसला किया जाए। इस कारण यह विवाद काफ़ी तूल पकड़ चुका था। ऐसी स्थिति में राजीव गांधी ने आरिफ़ मुहम्मद से कहा कि वह एक ज़ोरदार अभियान चलाकर लोगों को समझाएँ कि मुस्लिमों को नया क़ानून मानना चाहिए और ‘मुस्लिम व्यक्तिगत क़ानून’ पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
वी. पी. सिंह ने विद्याचरण शुक्ल, रामधन तथा सतपाल मलिक और अन्य असंतुष्ट कांग्रेसियों के साथ मिलकर 2 अक्टूबर, 1987 को अपना एक पृथक् मोर्चा गठित कर लिया। इस मोर्चे में भारतीय जनता पार्टी भी सम्मिलित हो गई। वामदलों ने भी मोर्चे को समर्थन देने की घोषणा कर दी। इस प्रकार सात दलों के मोर्चे का निर्माण 6 अगस्त, 1988 को हुआ और 11 अक्टूबर, 1988 को राष्ट्रीय मोर्चा का विधिवत गठन कर लिया गया।प्रधानमंत्री के पद पर 1989 का लोकसभा चुनाव पूर्ण हुआ। कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसे मात्र 197 सीटें ही प्राप्त हुईं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं। भाजपा और वामदलों ने राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन देने का इरादा ज़ाहिर कर दिया। तब भाजपा के पास 86 सांसद थे और वामदलों के पास 52 सांसद। इस तरह राष्ट्रीय मोर्चे को 248 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया। वी. पी. सिंह स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता रहे थे। उन्हें लगता था कि राजीव गांधी और कांग्रेस की पराजय उनके कारण ही सम्भव हुई है। लेकिन चन्द्रशेखर और देवीलाल भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शरीक़ हो गए। ऐसे में यह तय किया गया कि वी. पी. सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी होगी और चौधरी देवीलाल को उपप्रधानमंत्री बनाया जाएगा। अत: 2 दिसम्बर, 1989 को वी. पी. सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण कर ली।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सादगी का चोला धारण करके अपनी चालें चली थीं। वह जनता के सामने आम आदमी बने लेकिन हृदय से कुटिल चाणक्य थे। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सिखों के घाव पर मरहम रखने के लिए स्वर्ण मन्दिर की ओर दौड़ लगाई। ‘ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार’ राजीव गांधी की माता इंदिरा गांधी द्वारा उठाया गया क़दम था। वी. पी. सिंह ने राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी के भ्रष्टाचार का ख़ुलासा करने का वादा किया था, लेकिन वह किसी भी आरोप को साबित नहीं कर सके। उस समय तक राजीव गांधी की मृत्यु हो चुकी थी। चन्द्रशेखर और देवीलाल भी उनके साथ स्पर्द्धा कर रहे थे। कश्मीर का आतंकवाद भी एक समस्या बन रहा था। कश्मीर का मसला निबटाने के लिए जो समिति बनी, उसका अध्यक्ष जॉर्ज फ़र्नाडीज को बनाया गया। अरुण नेहरू और मुफ़्ती मुहम्मद सईद को भी कश्मीर मामले में दख़ल देने का अधिकारी बना दिया गया। फिर रही-सही क़सर उन्होंने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनाकर पूरी कर दी। इससे ज़ाहिर हो रहा था कि वह किसी पर विश्वास नहीं कर रहे थे। कुल मिलाकर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार सभी क्षेत्रों में असफलता को प्राप्त हुई। श्रीलंका से भारतीय सेना की मुक़म्मल वापसी हो गई। राम मन्दिर और बाबरी मस्जिद का मामला भी उलझाए रखा गया। वी. पी. सिंह ने जब जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनाकर वहाँ पर भेजा तो फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। तब जगमोहन ने कश्मीर का शासन हस्तगत करने के लिए विधानसभा भंग कर दी। ऐसे में वी. पी. सिंह ने विवश होकर जगमोहन को कश्मीर से वापस बुला लिया।
जनता मोर्चा के चन्द्रशेखर खरी बात कहने वाले व्यक्ति थे। फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद से इस कारण से त्यागपत्र दिया था, क्योंकि जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेजा गया था। जगमोहन ने 1983 में विधायकों को तोड़कर फ़ारूख़ अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने के लिए विवश कर दिया था। इस कारण चन्द्रशेखर ने फ़ारूख़ अब्दुल्ला का समर्थन किया। राष्ट्रीय मोर्चा में सभी नेताओं के परस्पर सम्बन्ध बहुत ख़राब थे। चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह को देवीलाल पसंद नहीं करते थे और चन्द्रशेखर को देवीलाल नापसंद थे। देवीलाल अपने पुत्र ओमप्रकाश चौटाला के मोह में ग्रस्त थे। इस कारण उन्होंने हरियाणा की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ओमप्रकाश चौटाला को बैठा दिया। चौटाला ने महम की सीट से चुनाव लड़ा था। धाँधलियों के कारण निर्वाचन आयोग ने वह चुनाव रद्द कर दिया। तब चौटाला को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। लेकिन दो माह बाद उपप्रधानमंत्री पिता देवीलाल के वरद हस्त से वह पुन: हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए। इससे राष्ट्रीय मोर्चे में अंतर्कलह की स्थिति ज़्यादा बढ़ गई।
ओमप्रकाश चौटाला के मुद्दे पर आरिफ़ मुहम्मद और अरुण नेहरू ने त्यागपत्र दे दिया। तब वी. पी.सिंह ने देवीलाल से स्पष्ट कह दिया कि यदि ओमप्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ते हैं तो वह प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे देंगे। ऐसी स्थिति में देवीलाल ने उन्हें आश्वासन दिया कि ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री का पद छोड़ देंगे। देवीलाल जानते थे कि उनके पुत्र ओमप्रकाश चौटाला पर दबाव बनाने वाले व्यक्ति अरुण नेहरू और आरिफ़ मुहम्मद हैं। इसीलिए उन्होंने दोनों के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। आरोप के समर्थन में देवीलाल ने 1987 में राष्ट्रपति को लिखे गए वी. पी. सिंह का पत्र प्रस्तुत किया। जिसमें अरुण नेहरू और आरिफ़ मुहम्मद के बोफोर्स सौदे में शरीक़ होने की बात लिख थी। वी. पी. सिंह ने उस पत्र को न केवल जाली क़रार दिया बल्कि चौधरी देवीलाल की शक्ति का अनुमान लगाए बिना उन्हें बर्ख़ास्त भी कर दिया।
देवीलाल ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए 9 अगस्त को किसान रैली करने का निर्णय किया। वी. पी. सिंह जानते थे कि चौधरी देवीलाल का किसानों पर अच्छा प्रभाव है। उन्हें पता था कि यदि यह रैली हुई तो दिल्ली का प्रशासन डोल जाएगा। अत: उस रैली का मुक़ाबला करने के लिए वी. पी. सिंह ने 7 अगस्त को मंडल कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश कर दी। दरअसल जनता पार्टी सरकार ने 1977-79 में मंडल कमीशन का गठन किया था। मंडन कमीशन ने अन्य पिछड़ा वर्ग के सम्बन्ध में अनेक अनुशंसाएँ की थीं। लेकिन जनता पार्टी उसे लागू कर पाती, उसके पूर्व ही वह टूट गई और चुनाव के बाद में इंदिरा गांधी सत्ता में आ गईं।वी. पी. सिंह के हाथ मंडल कमीशन की वही सिफ़ारिशें लग गई थीं। उसे संसद में पेश करने के बाद जब अनुशंसाएँ लागू हुई तो देश में भूचाल आ गया। सवर्ण और अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में दो नई समस्याएँ पैदा हो गईं। अन्य पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में 27 प्रतिशत का आरक्षण प्राप्त हो रहा था जबकि सवर्णों के लिए 50.5 प्रतिशत ही नौकरी के अवसर रह गये थे। क्योंकि एस. सी. और एस. टी. के लिए 22.5 प्रतिशत पहले से ही आरक्षण था। इस आरक्षण नीति को उच्च शिक्षा के अवसरों पर भी लागू होना था।
मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होते ही छात्र भड़क उठे। सवर्ण जाति के नौजवानों को लग रहा था कि उनका भविष्य अंधकारमय हो गया है। नौजवान यह मांग कर रहे थे कि एस. सी. एवं एस. टी. आरक्षण की समीक्षा की जाए और आरक्षण का लाभ प्राप्त कर सवर्णों के बराबर आ चुके लोगों को उस सूची से निकाल दिया जाए। अब समस्या और भी जटिल हो गई थी। छात्र हिंसक आन्दोलन करने लगे। अनेक छात्रों ने तो आत्मदाह भी कर लिया। तब मेरठ के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने नौजवानों का आह्वान किया कि उन नेताओं को सबक सिखाओ जिन्होंने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू की हैं। दिल्ली में अव्यवस्था फैल गई। छात्रों पर अंकुश लगाना पुलिस के बूते से बाहर हो गया था। ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय ने 1 अक्टूबर, 1990 को मंडल कमीशनश के प्रतिवेदन को लागू करने पर रोक लगा दी।इन सबका परिणाम वी. पी. सिंह के लिए घातक सिद्ध हुआ। फिर 10 नवम्बर, 1990 को 58 सांसदों ने चन्द्रशेखर के पक्ष में पाला बदल लिया। ऐसे में वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। उसके बाद वी. पी. सिंह सदैव के लिए हाशिये पर चले गए।इस दौरान वी. पी. सिंह गुर्दों की बीमारी से पीड़ित रहे। उन्होंने किसानों और विस्थापितों की समस्याओं को आधार बनाकर अपना राजनीतिक क़द पुन: बनाने का प्रयास किया। लेकिन इनका शरीर साथ नहीं दे रहा था। 27 नवम्बर, 2008 को 77 वर्ष की अवस्था में वी. पी. सिंह का निधन दिल्ली के ‘अपोलो हॉस्पीटल’ में हो गया। इन्हें पिछले 17 वर्षों से ब्लड कैंसर था। इनके लीवर ने भी कार्य करना बंद कर दिया था। इन्हें मृत्यु से 6 माह पूर्व अपोलो हॉस्पीटल में भर्ती करवाया गया था। वह अपने पीछे पत्नी सुनीता कुमारी तथा दो पुत्रों अभय सिंह और अजय सिंह को छोड़ गए।