शेख अबु अल-फ़ैज़, फ़ैज़ी मध्यकालीन भारत में फारसी कवि थे । 1588 में वह अकबर का मलिक-उश-शु‘आरा (विशेष कवि) बन गए थे । फ़ैज़ी अबुल फजल के बड़ा भाई थे। सम्राट अकबर ने उन्हें अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था। बाद में अकबर ने उन्हें अपने नवरत्नों में से एक चुना था। फ़ैज़ी के पिता का नाम शेख मुबारक नागौरी था। ये सिंध के सिविस्तान, सहवान के निकट रेल के सिन्धी शेख, शेख मूसा की पांचवीं पीढ़ी से थे। इनका जन्म आगरा में 954 हि. (24 सितंबर1747 ) में हुआ। फ़ैज़ी ने पूरी शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। शेख मुबारक सुन्नी, शिया, महदवी सबसे सहानुभूति रखते थे। फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल इसी दृष्टिकोण के कारण अकबर के राज्यकाल में सुलह कुल (धार्मिक सहिष्णुता) की नीति को स्पष्ट रूप दे सके। हुमायूँ के पुन: हिंदुस्तान का राज्य प्राप्त कर लेने पर ईरान के अनेक विद्वान भारत पहुँचे। वे शेख मुबारक के मदरसे, आगरा में भी आए। फैज़ी को उनके विचारों से अवगत होने का अवसर मिला।
974 हि. (1567) में फ़ैज़ी शाही दरबार के कवि बने, किंतु अभी तक धार्मिक विषयों पर अकबर ने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना प्रारंभ नहीं किया था, अत: दरबार के आलिमों के अत्याचार के कारण शेख मुबारक, फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल को कुछ समय तक बड़े कष्ट भोगने पड़े। 1574 में अबुल फ़ज़ल भी दरबार में पहुँचे। उस समय से फ़ैज़ी की भी उन्नति होने लगी। 1578 में अकबर ने अपने पुत्र शाहज़ादे सलीम व मुराद की शिक्षा का भार उनको दिया। 1579 में अकबर ने फ़तहपुर की जामा मस्जिद में जो खुतबा पढ़ा उसकी रचना फ़ैज़ी ने की थी। हि. 990 (1581) में इन्हें अकबर द्वारा आगरा, कालपी एवं कलिंजर का सदर नियुक्त किया गया। 11 फ़रवरी 1589 को उन्हें ‘मलिकुश्शु अरा’ (कविसम्राट्) की उपाधि प्रदान की गई। हि. 999 (अगस्त, 1591) में उन्हें खानदेश के राजा अली खां एव अहमदनगर के बुरहानुलमुल्क के पास राजदूत बनाकर भेजा गया। 1 वर्ष 8 माह 14 दिन के बाद वह दरबार में वापस पहुँचे। 10 सफ़र, 1003 हि. (15 अक्टूबर 1595) को दक्खिन से वापस लौटने के कुछ वर्षोपरांत फ़ैज़ी को क्षय रोग अत्यधिक बढ़ जाने से लाहौर में उनकी मृत्यु हो गई। पहले उन्हें आगरा में रामबाग में दफ़नाया गया, किन्तु बाद में सिकंदरा के निकट उनके मकबरे में दफ़नाया गया।
दक्षिण से जो पत्र उन्होंने अकबर के पास भेजे उन्हें उसके भानजे नूरुद्दीन मुहम्मद अब्दुल्लाह ने लतायफ़े फ़ैज़ी के नाम से संकलित कर दिया है। इन पत्रों से उस समय की सामाजिक एवं संस्कृतिक दशा का बड़ा अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है तथा ईरान और तूरान के विद्वानों एवं अकबर द्वारा विद्वानों के प्रोत्साहन पर प्रकाश पड़ता है। 1594 में उसने निज़ामी गंजबी के खम्से (पाँच मसनवियों का संग्रह) के समान पाँच मसनवियों की रचना की योजना बनाई जिसमें निज़ामी के मखज़ने असरार के समान मरकज़े अदवार की और लैला मजनू के समान नल दमन (राजा नल तथा दमयन्ती की प्रेमकथा) की रचना समाप्त कर ली। नलदमन को उसने स्वयं उसी वर्ष अकबर को समर्पित किया। सिकंदरनामा के समान, अकबरनामा की रचना की योजना बनाई किंतु केवल गुजरात विजय पर कुछ शेर लिख सका। अमीर खुसरो और शीरीं के समान सुलेमान और विल्क़ीस तथा हफ्त पैकर के समान हफ्त किश्वर की रचना की भी उसने योजना बनाई थी किंतु उन्हें पूरा न कर सका। 1002 हि. (1593) में उसने कुरान की अरबी में एक टीका लिखी जिसमें केवल ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिनके अक्षरों पर नुक्ते नहीं है। फैजी की गज़लों का संग्रह (दीवान) भी बड़ा महत्वपूर्ण है। उसके शेरों का लोहा ईरानवाले भी मानते हैं। उत्साह एवं स्वतंत्र दार्शनिक विचार, उसके शेरों की मुख्य विशेषता हैं। उसे धार्मिक संकीर्णता से बहुत घृणा थी और वह दरवेशों, फक़ीरों तथा संतों से आदरपूर्वक व्यवहार करता था। उसका पुस्तकालय बड़ा विशाल था। फ़ैज़ी ने भास्कराचार्य के गणित पर प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ, लीलावती का फारसी में अनुवाद किया। उसमें निहित प्रस्तावना के अनुसार यह कार्य हि. 995 (1587) में पूरा हुआ था।