शरत चन्द्र बोस बैरिस्टर और स्वतंत्रता सेनानी थे। ये जानकी नाथ बोस के बेटे और सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई थे। शरत चन्द्र बोस काँग्रेस कार्यकारी समिति के सदस्य थे तथा बंगाल विधान सभा में काँग्रेस संसदीय पार्टी के नेता थे। शरत चन्द्र बोस का जन्म 6 सितम्बर, 1889 में कलकत्ता में हुआ था । उनके पिता जानकी नाथ बोस, कटक के प्रमुख अधिवक्ता थे। शरत चन्द्र बोस की शिक्षा-दीक्षा कटक तथा कलकत्ता में सम्पन्न हुई। उन्होंने इंग्लैण्ड से कानून में शिक्षा प्राप्त की तथा वापस स्वदेश लौट कर उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय से अपनी वकालत शुरू कर दी। शरत की वकालत दिन पर दिन फलने-फूलने लगी। शरत चन्द्र ने देशबन्धु चित्तरंजन दास के निर्देशन में अपने करीयर का आरम्भ किया तथा कलकत्ता निगम के कार्यों में वर्षो तक चर्चित रहे। अहिंसा में विश्वास रखने के बावजूद उनका क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति का दृष्टिकोण था। वे अगस्त 1946 में केंद्र की अंतरिम सरकार में शामिल हुए। उन्होने बंगाल विभाजन का विरोध किया था। वे बंगाल को भारत और पाकिस्तान का अलग स्वाधीन राज्य बनाना चाहते थे। किन्तु वे इसमें असफल रहे।शरत चंद्र बोस अपने माता पिता की चौथी संतान और दूसरे बेटे थे, जबकि सुभाष चंद्र बोस उनसे 8 साल छोटे थे. शरत चंद्र बोस पर बंग भंग आंदोलन का काफी प्रभाव पड़ा, 18 साल की उम्र में वो कांग्रेस से जुड़ गए. अपने कॉलेज के ऐसे प्रखर वक्ता बन गया, जिनसे पार पाना मुश्किल था. 1911 से 1914 तक इंगलैंड में पढ़ाई करके लौटे तो कोलकाता हाईकोर्ट में बैरिस्टर बन गए। उस दौर में क्रांतिकारी और राजनीतिक कार्यकर्ता आसानी से जेल जाने के तैयार रहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि उनको जल्द शरत बाबू छुड़ा लेंगे और उनके परिवार का ख्याल भी रखेंगे।
जब सुभाष चंद्र बोस को प्रेसीडेंसी कॉलेज में एक घटना के बाद प्रिंसिपल ने निष्कासित कर दिया, तो शरत बाबू ने अपने सम्पर्कों से उनका एडमीशन स्कॉटिश चर्च कॉलेज में करवाया और वो कैसे सुभाष बाबू की आर्थिक देखभाल करते थे, उसके बारे में आप सुभाष बाबू के एक पत्र से बखूबी समझते हैं. ये पत्र सुभाष चंद्र बोस ने शरद चंद्र बोस को तब लिखा था, जब वो 1921 में आईसीएस (सिविल सर्विस) की परीक्षा पास करने के बाद इस्तीफा दे रहे थे, इस पत्र में सुभाष बाबू ने लिखा था, “जब मैं आपसे अपने इस्तीफे के विषय में आग्रह कर रहा हूं तो यहां मैं अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ नहीं मांग रहा, बल्कि अपने भाग्यहीन देश के लिए मांग रहा हूं. मुझे पर खर्च किए गए धन को आपको मां पर किए गए खर्च के रूप में देखना होगा, बिना प्रतिलाभ की आशा किए हुए।”
जिस कांग्रेस को बंगाल में खड़ा करने के लिए शरत बाबू ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, इतना समय दिया, अंग्रेजों से झगड़ा मोल लिया, इतना पैसा दिया, उसी कांग्रेस के नेताओं ने जब साजिश करके सुभाष चंद्र बोस को लगातार दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने देने की राह में रोड़े अटकाए, 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने गांधीजी के प्रिय पट्टाभि सीतारमैया को हराकर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, तो कोई भी उनके साथ नहीं खड़ा था, केवल शरत बाबू खड़े थे।
तब शरत बाबू ने गांधीजी को गुस्से में एक पत्र भी लिख डाला था, “त्रिपुरी में जिन 7 दिनों में मैंने रहकर जो कुछ भी देखा, सुना वह मेरी आंखें खोल देने वाला था. जिन लोगों को जनता खुद आपके द्वारा चुने गए शिष्यों, प्रतिनिधियों के रूप में देखती है, उनमें सत्य और अहिंसा का जो दृष्य मैंने देखा, उसने खुद आपके ही शब्दों में मेरा नासिका में दुर्गन्ध भर दी है. राष्ट्रपति (कांग्रेस अध्यक्ष) के विरुद्ध जो प्रचार उन्होंने किया, वह पूरी तरह से निकृष्ट, दुर्भावना से पूर्ण और प्रतिशोधपूर्ण था, जिसमें सत्य और अहिंसा का पूर्णत: अभाव था. त्रिपुरी मे जनता के सामने आपके नाम की कसमें खाने वालों ने अपने स्वार्थ सिद्धि करने के लिए और उसको पीड़ा का अधिकतम शर्मनाक लाभ अर्जित करने के लिए उसे गतिरोध के सिवा कुछ नहीं दिया’’।