स्वप्निल संसार। जयंती पर विशेष। -आचार्य नरेंद्रदेव प्रमुख स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार एवं शिक्षाविद थे। वे कांग्रेस समाजवादी दल के प्रमुख सिद्धान्तकार थे। विलक्षण प्रतिभा और व्यक्तित्व के स्वामी आचार्य नरेन्द्रदेव अध्यापक के रूप में उच्च कोटि के निष्ठावान अध्यापक और महान शिक्षाविद् थे। काशी विद्यापीठ के आचार्य बनने के बाद से यह उपाधि उनके नाम का ही अंग बन गई। देश को स्वतंत्र कराने का जुनून उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में खींच लाया और भारत की आर्थिक दशा व गरीबों की दुर्दशा ने उन्हें समाजवादी बना दिया।
आचार्य नरेंद्रदेव का जन्म 31 अक्टूबर 1889 में कार्तिक शुक्ल अष्टमी को सीतापुर में हुआ था। उनके पिता बलदेवप्रसाद अपने समय के बड़े वकीलों में थे। वे धार्मिक वृत्ति के थे। कांग्रेस और सोशल कानफरेंस के कामों में भी थोड़ी बहुत दिलचस्पी लेते थे। इस नाते उपदेशक, संन्यासी और पंडित उनके घर आया करते थे। इस तरह बचपन में ही स्वामी रामतीर्थ, पंडित मदनमोहन मालवीय, पं॰ दीनदयालु शर्मा आदि के संपर्क में आने का मौका मिला। पिता जी के प्रभाव से आचार्य जी (तब अविनाशीलाल) के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग उपजा। इसी कारण आगे चलकर आपने एम.ए. में संस्कृत की शिक्षा ली। इसके पूर्व इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। बी.ए. पास कर पुरातत्व पढ़ने काशी के क्वींस कालेज में आए। 1913 में एम.ए. पास किया। घरवालों ने वकालत पढ़ने का आग्रह किया। नरेंद्रदेव जी को यह पेशा पसंद नहीं था। किंतु वकालत करते हुए राजनीति में भाग ले सकने की दृष्टि से कानून पढ़ा। 1915-20 तक पाँच वर्ष फैजाबाद में वकालत की। इसी बीच असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ। असहयोग आंदोलन के शुरू होने के बाद जवाहरलाल नेहरू की सूचना और अपने मित्र शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर नरेंद्रदेव जी विद्यापीठ आए।
विद्यापीठ में डाक्टर भगवानदास जी की अध्यक्षता में आचार्य जी ने काम शुरू किया। 1926 में स्वयं अध्यक्ष हुए। दो वर्ष तक विद्यार्थियों के साथ ही नरेंद्रदेव जी और हम लोग रहते थे। एक कुटुंब सा था। साथ-साथ हम लोग राजनीतिक कार्य भी करते थे। विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों से आपका बड़ा ही घनिष्ठ संबंध रहा है। श्री श्रीप्रकाश जी ने उन्हें आचार्य कहना शुरू किया और फिर तो वह उनके नाम का एक अंग बन गया। काशी विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने आचार्य जी के नेतृत्व में देश के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद शासक और विरोधी दलों के योग्य नेता और कार्यकर्ता, विद्या और आचरणसंपन्न अध्यापक, प्रखर पत्रकार और रचनात्मक कार्यकर्ता भी विद्यापीठ से निकले।
प्रयाग में अध्ययन के संबंध में रहते हुए नरेंद्रदेव जी के विचार पुष्ट हुए। हिंदू बोर्डिग हाउस उन दिनों उग्र विचारों का केंद्र था। नरेंद्रदेव जी वहाँ गरम दल के विचारों के हो गए। 1906 में आपने जो उग्र विचारधारा अपनाई तो फिर जीवन भर उसपर दृढ़ रहे। 1905 में आप कांग्रेस के अधिवेशनों में गरम दल के होने के कारण जाना छोड़ दिया। 1916 में जब कांग्रेस में दोनों दलों में मेल हुआ तब फिर कांग्रेंस में आ गए। 1916 से 1948 तक आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य और जवाहरलाल की वर्किग कमेटी के सदस्य भी थे।
भग्न स्वास्थ्य के बावजूद आपने 1930 के नमक सत्याग्रह, 1932 के आंदोलन तथा 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में साहस के साथ भाग लिया और जेल की यातनाएँ सहीं। 1942 में चार महीने तक गांधी जी ने अपने आश्रम में चिकित्सा के लिए रखा। अधिक अस्वस्थ होने पर गांधी जी ने अपना मौन तोड़ा। फिर, जब 8 अगस्त 42 को गांधी जी ने “करो या मरो” प्रस्ताव रखा, बंबई में आचार्य जी कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ्तार हो गए। 1942-45 तक जवाहरलाल नेहरू के साथ अहमदनगर के किले में बंद रहे। वैसे, क्रांतिकारी दल के कभी सदस्य नहीं हुए, किंतु उनके कई नेताओं से आपका घनिष्ठ परिचय था। वे आपका विश्वास करते थे, समय-समय पर आपसे सहायता भी लेते थे और विदेशों से आनेवाला साहित्य ले जाते थे और अपने समाचार देते थे।
1934 में आपने जयप्रकाश नारायण, डाक्टर राममनोहर लोहिया तथा अन्य सहयोगियों के साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। 1934 में हुए प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष आचार्य जी ही थे। कांग्रेस से बाहर आने पर 1948 में सोशलिस्ट पार्टी का जो सम्मेलन पटना में हुआ उसकी अध्यक्षता भी आचार्य जी ने ही की। समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्रदेव का वही स्थान रहा है जो एक परिवार में पिता का होता है या व्यक्ति में आत्मा का होता है। आचार्य जी माक्र्सवादी समाजवादी थे, किंतु बराबर कहा करते थे कि इस युग की दो मुख्य प्रेरणाएँ राष्ट्रीयता और समाजवाद है और राष्ट्रीय परिस्थितियों और आकांक्षाओं की दृष्टि से ही समाजवाद का अर्थ करने पर जोर देते रहे। इस दृष्टि से आचार्य जी किसानों के सवाल पर विशेष जोर देते थे और किसानों की भूमिका का विशेष मान करते थे, जब कि माक्र्सवादी परंपरा के अनुसार किसान की भूमिका प्रतिक्रियावादी ही हो सकती है। भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना, आचार्य जी की भारतीय समाजवाद को एक स्थायी देन है।
बौद्धदर्शन के अध्ययन में आचार्य जी की विशेष रुचि और गति रही है। आजीवन वे बौद्धदर्शन का अध्ययन करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में “बौद्ध-धर्म-दर्शन” उन्होंने पूरा किया। “अभिधर्मकोश” भी प्रकाशित कराया था। “अभिधम्मत्थसंहहो” का भी हिंदी अनुवाद किया था। प्राकृत तथा पालि व्याकरण हिंदी में तैयार किया था। किंतु वह मिल नहीं रहा है। संभव है, उनकी किताबों वगैरह के साथ कहीं मिले। बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माणकार्य भी उन्होंने प्रांरभ किया था। पेरुंदुराई के विश्रामकाल में आपने 400 शब्दों को व्याख्यात्मक कोश बनाया था, किंतु आकस्मिक निधन से यह काम पूरा न हो सका। किंतु प्रकाशित रचनाओं से शायद अधिक बेजोड़ उनके भाषण रहे हैं। इस बात का कई बार विचार हुआ कि उनके भाषणों का संग्रह किया जाए, किंतु व्यवस्था न हो सकी और इस तरह ज्ञान की एक अमूल्य निधि खो गई।
आचार्य नरेंद्रदेव ने “विद्यापीठ” त्रैमासिक पत्रिका, “समाज” त्रैमासिक, “जनवाणी” मासिक, “संघर्ष” और “समाज” साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। इनमें जो लेख, टिप्पणियाँ वगैरह समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं, उनके संग्रह हैं : राष्ट्रीयता और समाजवाद, समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन, सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास, युद्ध और भारत, किसानों का सवाल आदि।
आचार्य जी जीवन पर्यन्त दमे के मरीज रहे। इसी रोग के कारण 19 फ़रवरी, 1956 को मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के एडोर में उनका निधन हो गया। वे अपने मित्र और मद्रास के तत्कालीन राज्यपाल श्रीप्रकाश के निमंत्रण पर स्वास्थ्य लाभ के लिए वहाँ गए थे।