खाशाबा दादा साहेब जाधव जिन्होंने आजाद भारत को पहला इंडिविजुअल ओलिंपिक मेडल दिलाया था । खाशाबा दादा साहेब जाधव का जन्म 15 जनवरी,1926 को गोलेश्वर में हुआ था। पीढ़ियों से उनके परिवार में कुश्ती सीखने का चलन है इसलिए छोटी उम्र से ही जाधव को भी इसमें आना पड़ा। जाधव के लिए कुश्ती सिर्फ खेल नहीं बल्कि एहसास था। वैसे तो जाधव स्विमिंग, वेटलिफ्टिंग, जिमनास्टिक खेलों में भी काफी अच्छे थे लेकिन उनकी असली जान थी कुश्ती।
जाधव बहुत अमीर घराने से नहीं थे। बहुत मुश्किल से उनका महीने का गुजारा चलता था, लेकिन फिर भी उनके परिवार ने कभी भी उन्हें कुश्ती करने से नहीं रोका। खाशाबा दादा साहेब जाधव पूरी लगन से कुश्ती सीखते रहे। आठ साल की उम्र में जाधव ने अपना पहला मुकाबला खेला। उस मुकाबले के बारे में कुछ यूँ कहा जाता है कि जाधव ने वहां के कुश्ती चैम्पियन को हरा दिया था। वह भी दो मिनट के अंदर। उस दिन के बाद से जाधव ने यह निश्चय कर लिया कि वह प्रोफेशनल रेसलर बनके रहेंगे। वह कड़ी मेहनत करने लगे। कुश्ती में आगे बढ़ने के लिए।
बड़े होने तक भी जाधव का कुश्ती प्रेम कम नहीं हुआ. वह निरंतर आगे बढ़ते रहे। पहले अपने पड़ोस के गाँव, फिर स्कूल, कॉलेज और नेशनल लेवल तक जो भी जाधव के सामने आया उसे मुंह की खानी पड़ी। अपने निरंतर अच्छे होते खेल के कारण ही जाधव 1948 के लंदन ओलिंपिक के लिए सेलेक्ट हो गए।यह जाधव के लिए खुशी की बात तो थी कि वह ओलिंपिक के लिए चुने गए लेकिन उनके पास वहां जाने के पैसे नहीं थे। उस समय सरकार भी खेलों पर ज्यादा खर्च नहीं करती थी। जाधव का ओलिंपिक सपना कहीं बेकार न चला जाए इसलिए उनके गाँव वालों और कोल्हापुर के महाराजा ने उनके लिए पैसे इकठ्ठा किए।उनकी मदद से जाधव ओलिंपिक खेलने जा पाए। प्रोफेशन रेसलिंग जाधव के लिए उस समय नई चीज थी। उन्हें नंगे पैर मिट्टी के अखाड़े में खेलना आता था लेकिन रूल्स के साथ मैट पर नहीं। वह थोड़े परेशान जरूर थे लेकिन जब वह खेलने उतरे तो उन्होंने सबको हैरान कर दिया। उनके आगे इंटरनेशनल प्लेयर भी नहीं टिक पा रहे थे। कुछ मैच तो जाधव ने बखूबी जीते लेकिन अंत में वह छठे पायदान पर आकर हार गए। वह अपने साथ कोई पदक तो नहीं ला सके लेकिन एक लक्ष्य जरूर ले आए। उनका लक्ष्य था कि अगले ओलिंपिक में उन्हें भारत के लिए पदक जीतना ही है। किसी भी हालत में! अपने उस सपने के लिए जाधव ने खून-पसीना एक कर दिया ट्रेनिंग में।
लंदन ओलिंपिक की हार जाधव के दिलो-दिमाग से गई नहीं थी। वह नहीं भूले थे कि आखिर उनका लक्ष्य क्या है । अगले ओलिंपिक के लिए उन्होंने चार साल तक कड़ा परिश्रम किया। 1952 में जाधव के सामने एक बार फिर से ओलिंपिक में जाने का मौका आया लेकिन एक बार फिर उनके सामने पैसों की परेशानी भी आ गई। फिर उन्हें कोल्हापुर के महाराजा की तरफ से कोई मदद नहीं मिली और न ही सरकार की तरफ से। वह जगह-जगह लोगों के पास जाते रहे पैसे इकठ्ठा करने के लिए लेकिन उन्हें पैसे नहीं मिले. जब जाधव को लगा कि उनका सपना अब अधूरा रह जाएगा तब उनके कॉलेज के प्रिंसिपल उनकी मदद करने सामने आए। माना जाता है उन्हें जाधव पर विश्वास था जिसके लिए उन्होंने 7000 रूपए में अपना घर गिरवी रखा ताकि जाधव ओलिंपिक के लिए फिनलैंड जा सकें.जाधव जेब में पैसे और आँखों में सपने लिए ओलिंपिक खेलने पहुंचे। उन्होंने वहां कई इंटरनेशनल खिलाडियों को पस्त कर दिया था। जाधव ने उस समय एक फाइट लड़ी ही थी कि उनकी अगली फाइट रूस के पहलवान से थी। उस समय के नियमों के हिसाब से दो फाइट्स के बीच 30 मिनट का फर्क होना चाहिए लेकिन जाधव के अलावा वहां भारत से कोई और नहीं था। इसलिए जाधव को तुरंत ही वापस लड़ना पड़ा। वह थके हुए थे लेकिन फिर भी लड़े और एक घमासान मुकाबला करने के बाद वह हार गए। अपनी हार के कारण उन्होंने फाइनल में जाने का चांस भी खो दिया था। इन सबके बावजूद वह कांस्य पदक हासिल करने में कामयाब रहे। वह आजाद भारत के पहले ऐसे भारतीय बने जो अकेले किसी खेल में मेडल लाया हो। जाधव के इस कारनामे ने इतिहास के पन्नों में उनका नाम दर्ज करवा दिया।
देश के लिए इतिहास रचने के बाद जब जाधव वापस भारत लौटे तो थोड़े समय तो उनकी खूब वाहवाही हुई लेकिन बाद में उन्हें लोग भूलते गए। उन्हें महाराष्ट्र पुलिस में नौकरी दे दी गई। वह पूरी जिंदगी पुलिस की नौकरी ही करते रहे। महाराष्ट्र सरकार ने तो उन्हें कुछ पुरस्कारों से नवाज़ा लेकिन स्पोर्ट्स अथॉरिटी की तरफ से उनके लिए कुछ भी नहीं किया गया। जाधव को पुरस्कारों की भूख नहीं थी वह तो चाहते थे कि देश में कुश्ती को प्रोत्साहित किया जाए। जाधव का निधन 14 अगस्त, 1984 को हुआ था। एजेंसी